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________________ . 4 4FFFF हो जाने पर मृत्यु के समय सज्जन लोगों को पश्चाताप ही करना पड़ता है । इसलिये चतुर प्राणियों को || बाल्यावस्था से ही धर्म का सेवन करना चाहिये, क्योंकि यमराज (मृत्यु) लेने के लिए कब आ जायेगा, यह किसी को भी ज्ञात नहीं है । जो जीव बाल्यावस्था से कठिन. तपश्चरण एवं चारित्र पालन नहीं करता, वह आयु वृद्धि पर भी उसका पालन नहीं कर सकता-जैसे वृद्धावस्था में वृषभ (बैल) कुछ नहीं कर सकता।' इस प्रकार विचार कर राजा ने दोनों रानियों का तथा भोग (राज्यलक्ष्मी) का परित्याग किया एवं स्वयं मोक्ष प्राप्त करने के लिए वैराग्य धारण कर दीक्षा-लक्ष्मी को स्वीकार किया । कनकशान्ति के || तपश्चरण धारण कर लेने पर विवेक रूपी निर्मल नेत्रों को धारण करनेवाली उसकी रानियों ने भी शीघ्र ही देह भोग एवं संसार के प्रति वैराग्य धारण किया । वे दोनों ही रानियाँ अपने कुल की अन्य नारियों के साथ विमलमती नाम की गणिनी के समीप पहुँचीं एवं उनको नमस्कार कर सब के साथ जिनदीक्षा धारण की । इधर कनकशान्ति मुनिराज श्रुतज्ञान का निरन्तर अभ्यास करने लगे, ध्यान का अभ्यास करने लगे, दोनों प्रकार का कठिन तथा घोर तपश्चरण करने लगे एवं परीषहों पर विजय पाने लगे। वे मुनिराज वन में, पर्वत पर, किसी पर्वत की गुफा आदि शून्य स्थान में एवं भयंकर श्मशान में सिंह के समान सदा निर्भय होकर रहते थे । वे धीर-वीर मुनिराज कर्मों का नाश करने के लिए बिना किसी प्रमाद के वन, ग्राम एवं उपत्यका आदि में एकाकी विहार किया करते थे ॥१३०॥ जिन्होंने अपनी देह से ममत्व एवं अन्य समस्त परिग्रह त्याग दिये हैं एवं जिनको बुद्धि विशुद्ध है, ऐसे वे धीर-वीर मुनिराज एक दिन सिद्धाचल पर्वत पर कायोत्सर्ग धारण कर विराजमान हुए । वहाँ पर उन निस्पृह मुनिराज को बसन्तसेना के भ्राता चित्रशूल ने देखा । पूर्व भव के बैर के कारण एवं पाप कर्म के उदय से उन्हें देखते ही उसके नेत्र क्रोध से लाल हो गये एवं उस मूढ़ ने उन मुनिराज पर उपसर्ग करने का विचार किया । परन्तु उसी समय उन मुनिराज के तपश्चरण के प्रभाव से आए पुण्यवान विद्याधर राजाओं ने उसे ललकारा । ११५ उनकी ललकार से उपसर्ग करने में असमर्थ होने के कारण वह पापी वहाँ से पलायन कर गया । दूसरे दिन वे मुनिराज आहार के लिए ईर्यापथ का शोधन करते हुए रत्नपुर नगर में पहुँचे । वहाँ पर श्रेष्ठ धर्म से विभूषित राजा रत्नसेन ने उनकी पड़गाहना की, उन्हें नमस्कार किया तथा अमूल्य निधि प्राप्त होने के तुल्य वह प्रसन्न हुआ । दाता के सातों गुणों से युक्त होकर उस राजा ने नवधा भक्ति से कनकशान्ति मुनिराज 444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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