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________________ प्रभाव से मण्डित थे, पाप कर्म रूपी मल से रहित थे तथा समस्त जीवों का हित करनेवाले थे। वह बुद्धिमान राजा उनको नमस्कार कर तथा उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर उनके समीप बैठ गया । उन मुनिराज ने धर्मवद्धि का आशीर्वाद दिया तथा फिर कपापूर्वक श्रेष्ठ धर्म का निरूपण करना प्रारम्भ किया'श्रावकों ! धर्म एकदेश है, परन्तु वह जीवों की दया से परिपूर्ण है तथा अणुव्रत-शिक्षाव्रतों को धारण कर ही उसे सिद्ध किया जा सकता है । वह धर्म स्वर्गलोक का प्रदायक है तथा सम्यग्दर्शन के सहित होने पर अनुक्रम से निर्वाण पद को सिद्ध कराता है ॥११०॥ पाप रहित श्रेष्ठ धर्म अत्यन्त कठिन है, उपमा रहित है एवं मोक्ष प्राप्त होने तक जीव का कल्याण करनेवाला है । उसे गृह आदि परिग्रहों का त्याग करनेवाले एवं परीषहों को जीतनेवाले धीर-वीर मुनिराज ही तपश्चरण, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं विनय के द्वारा पालन कर सकते हैं । जो दीन मनुष्य विषयासक्त हैं एवं नारी आदि से घिरे हुए हैं, वे कभी स्वप्न में भी श्रेष्ठ मुनि धर्म को धारण नहीं कर सकते । इसलिए हे राजन् ! गृहस्थ धर्म को त्याग कर तीर्थंकर तथा गणधरों के द्वारा सेवनीय तथा सुख प्रदायक मुनि धर्म को शीघ्र धारण करो। यदि गृहस्थ कभी सामायिक आदि के द्वारा धर्म करता है, तो कभी गृहस्थी में लगनेवाले बहुत-से आरम्भ आदि से केवल पाप का बन्ध ही करता है तथा कभी चैत्यालय आदि बनवा कर पुण्य-पाप दोनों का ही अर्जन करता है । इस प्रकार श्रावक सदा कर्मों का बन्ध एवं उसकी निर्जरा करता रहता है । इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को गृह का परित्याग कर अत्यन्त निर्मल, सारभूत, समस्त चिन्ताओं से रहित तथा सर्व प्रकार के पाप योगों से परे मुनि धर्म धारण करना चाहिये । मुनि धर्म को धारण करने से यह जीव इस लोक में ही देवों एवं चक्रवर्तियों द्वारा पूज्य हो जाता है । फिर भला परलोक का तो कहना ही क्या है ?' कुमार कनकशान्ति भी उन मुनिराज के वचन सुनकर तथा काया (शरीर) भोग एवं संसार से विरक्त होकर मुनि धर्म की प्रेरणा प्रदायक परम संवेग को प्राप्त हुआ । वह विचार करने लगा-'जिनके हृदय विषयों से आसक्त हैं, ऐसे ||११४ मनुष्यों का यह अत्यन्त दुर्लभ जीवन धर्म के बिना व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है ॥१२०॥ जो समय व्यतीत हो जाता है, वह सैकड़ों सुवर्ण मुद्राएं देने पर भी कभी वापिस नहीं लौट सकता । इसलिये जब तक जीवन के दिन शेष रहें, तब तक बुद्धिमानों को अपना हित साधन कर लेना चाहिये । जिस प्रकार संचित निधि (कोष) के विनष्ट हो जाने पर दरिद्रों को मात्र हाथ ही मलना पड़ता है, उसी प्रकार दैवयोग से आयु पूर्ण 44444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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