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________________ F PF इन्द्रागण मिल कर उनकी पूजा-स्तुति कर रहे थे, अनन्तर सुख उन्हें प्राप्त हो चुका था तथा विपुल मुनिमण उन्हें नमस्कार कर रहे थे ॥९०॥ उन दोनों के दर्शन कर वह देव विचार करने लगा-'आश्चर्य है ! कहाँ. तो भय से व्याकुल हुआ वह विषयान्ध-तथा कहाँ देवों के द्वारा पूज्य तीनों लोकों के अधिपति ये सर्वज्ञ देव ! कहाँ तो मेरे वृद्ध पिता-तथा कहाँ सब पदार्थों को एक साथं जानने-देखनेवाली ये श्री केवली भगवान ! यह घटना संसार में महान पुरुषों को भी अत्यन्त आश्चर्य में डालनेवाली है । पूर्वकाल में जो ॥ मनियों ने बतलाया था कि जीवों में अनन्त शक्ति है; वह मिथ्या कैसे हो सकता है ? क्योंकि इस समय मैंने उस शक्ति का साक्षात् दर्शन कर लिया है। इस प्रकार चित्त में चिन्तवन कर उसने प्रत्येक केवली की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, मस्तक नवा कर नमस्कार किया तथा उनके अपार गुणों का वर्णन कर उनकी स्तुति की । स्वर्गलोक के दिव्य द्रव्यों से बड़ी भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की तथा आश्चर्यजनक फलदायक धर्म से मुदित होकर वह स्वर्गलोक लौट गया । उधर चक्रवर्ती अपने हृदय में जैन धर्म की स्थापना कर पुण्य कर्म के उदय से प्रकट ऋद्धियों से उत्पन्न होनेवाले भोगों को सदैव भोगने लगा । अथानन्तर-चैत्यालयों से सुशोभित श्वेतवर्ण रूपाचल पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिवमन्दिर नामक सुन्दर नगर है । अपने पुण्य कर्म के उदय से वहाँ मेघवाहन नामक राजा राज्य करता था । उसके बिमला नामक रूपवती एवं निर्मल चरित्रा रानी थी । उन दोनों के सती, रूपवती एवं शुभ लक्षणोंवाली कनकमाला नाम की एक पुत्री थी ॥१००॥ उसका विवाह सहस्रायुध के पुत्र कनकशान्ति के साथ विधिपूर्वक हुआ था । शुभोदय से कनकमाला उसे समस्त प्रकार के सांसारिक सुख देती थी । पुण्य कर्म के उदय से स्त्वोकसार नामक नगर में जयसेन नाम का एक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम जयसेना था। उनके बसन्तसेना नामक पुत्री थी । रूपवान कनकशान्ति ने विधिपूर्वक बसन्तसेना के संग भी विवाह किया था तथा वह उसकी कनिष्ठ रानी थी। जिस प्रकार काम रति से सन्तुष्ट होता है, उसी प्रकार वह कनकशान्ति उस (बसन्तसेना) के कटाक्षों से, हास्य से, काम-क्रीड़ा से, कोयल के समान मधुर शब्दों से सन्तुष्ट होता था । शुभ कर्म के उदय से एक दिन वह कनकशान्ति अपनी रानियों के संग विहार करने के लिए कौतूहलवश वन में गया । जिस प्रकार कन्दमूल ढूंढनेवाले को भाग्य से अमूल्य निधि मिल जाती है, उसी प्रकार पुण्य कर्म के उदय से कनकशान्ति को उस वन में विमलप्रभ नामक मुनि के दर्शन हो गये । वे मुनिराज ज्ञान के 444444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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