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बैर भाव तुम त्याग दो ।' वह शान्तिमती विद्याधरी राजा वज्रायुध से अपने पूर्व भवों के आश्चर्यजनक विचित्र कथानक सुन कर इस संसार से ही विरक्त हो गई। उसने विवाह, गृहस्थी आदि के विचार को त्याग दिया एवं पिता से भी सम्बन्ध ( नाता ) त्याग कर देवों के द्वारा पूज्य क्षेमकर तीर्थंकर के समीप पहुँची । उस सती ने श्री जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा दी, उन्हें नमस्कार किया एवं धर्मामृत पान की अभिलाषा से सभा में बैठ गई । उसने अपने कर्णों से जन्म, मरण एवं वृद्धावस्था के सन्ताप निवारण करनेवाला, आत्म रस प्रकट करनेवाला एवं मुनियों के लिए बोधगम्य तीर्थंकर के मुख रूपी चन्द्रमा से झरनेवाला धर्मामृत रूपी उत्तम रस का पान किया एवं अजर अमर पद प्राप्त करने के सदृश सन्तोष धारण किया ॥८०॥ तदनन्तर वह श्रेष्ठ गुणवती शान्तिमती सुलक्षणा नामक गणिनी के समीप पहुँची एवं उन्हें नमस्कार कर मोक्ष प्राप्त करने के उद्देश्य से उनसे चारित्र धारण किया । उस विद्याधरी ने एक साड़ी के अतिरिक्त अन्य समस्त बाह्य परिग्रहों का त्याग कर दिया एवं मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रहों का भी त्याग किया । उसने संवेग गुण की प्रबलता से तीव्र तपश्चरण किया शास्त्रों का अभ्यास कर सुख के सागर सदृश सम्यग्दर्शन की विशुद्धि धारण की। आयु के अन्त में उसने चार प्रकार का संन्यास धारण किया, एकाग्रचित्त से भगवान श्री जिनेन्द्रदेव का स्मरण किया, द्वादश भावनाओं का चिन्तवन किया एवं समाधि पूर्वक प्राणों का परित्याग किया । सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेद (विनष्ट) कर धर्म के प्रभाव से ईशान स्वर्ग में महान ऋद्धि को धारण करनेवाला देव हुआ । अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव का वृत्तान्त ज्ञात कर वह देव धर्मलाभ के लिए मुनिगण तथा श्री जिनेन्द्र देव की प्रतिमा को पूजा करने के लिए पृथ्वी पर आया । आते ही उस देव ने मुनिराज अजितसेन (जो विद्याधर पर्याय में उसकी विद्या सिद्धि में विघ्न डाल रहा था) एवं वायुवेग (पूर्व भव के पिता) के दर्शन किए। अतिशय वैराग्य के उदय से गृह का त्याग कर संयम धारण करने तथा तपश्चरण-ध्यानादि से उपरोक्त दोनों मुनिराजों को उसी समय केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । वे दोनों ही सिंहासनों पर अधर में विराजमान थे, उन पर चँवर ढुल रहे थे, अनेक प्रकार की विभूति प्रगट हो रही थीं, अष्ट प्रातिहार्यों के मध्य में वे सूर्य सम विराजमान थे, असंख्य देवगण सेवा . कर रहे थे, चतुर्विध संघों से सुशोभित थे । वे अनन्त गुणों से अलंकृत थे, समस्त जीवों का हित साधन करने के लिए वे तत्पर थे। उनकी अनेक प्रकार से महिमा चतुर्दिक विस्तीर्ण हो रही थी, समस्त
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