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________________ . 444444 करते है ॥६०॥ संसार में कितने पुण्यवान तो ऐसे हैं, जो अपनी पत्नी को भी त्याग कर संयम धारण कर लेते हैं, परन्तु मेरे समान कुछ ऐसे भी अधम हैं, जो परस्त्रियों की कामना करते हैं।' इस प्रकार अपनी ॥ निन्दा कर उसने पूर्वोपार्जित पापों को विनष्ट कर दिया एवं पाप रूपी वन को (भस्मीभूत करने) के लिए अग्नि के समान संवेग को द्विगुणित किया । तदनन्तर चारित्र धारण करने की कामना करता हुआ वह नलिनकेतु अनिन्द्य सुन्दरी प्रीतिकरा एवं विपुल राज्यभोग का त्याग कर सीमंकर मुनिराज के समीप पहुँचा । दुःख रूपी दावानल को शान्त करने (बुझाने) के लिए मेघ वर्षा तुल्य उन मुनिराज के दोनों चरण कमलों को उसने नमस्कार किया एवं बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों को त्याग कर जिन दीक्षा ||.. धारण की । उसका संवेग बहुत प्रचण्ड हो रहा था, इसलिये उसने घोर तपश्चरण किया एवं समस्त तत्वों से परिपूर्ण आगम का यथेष्ट अभ्यास किया । उन मुनिराज ने क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर 'पृथकत्व वितर्क विचार' नामक शुक्लध्यान रूपी वन खड्ग से कषाय रूपी दुष्ट शत्रुओं को निहत किया एवं फिर तीनों वेदों को विनष्ट किया । फिर उन्होंने दूसरे शुक्लध्यान रूपी वज्र से शेष घातिया कर्म रूपी पर्वत को | चूर-चूर किया तथा इस प्रकार साक्षात केवलज्ञान उनके प्रकट हुआ । इन्द्रादिकों ने तत्काल आकर उनकी स्तुति-पूजा की एवं फिर से सुख के सागर जिनराज अघातिया रूपी शत्रुओं को विनष्ट कर शाश्वत मोक्षपद में विराजमान हुए । प्रीतिकरा ने भी अपने दुराचरण की निन्दा की एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए संवेग धारण कर सुव्रता नामक अर्जिका के समीप पहुँची । उसने गृहस्थी सम्बन्धी समस्त परिग्रहों का त्याग कर संयम धारण किया एवं कर्म-रूपी तिनकों को विदग्ध करनेवाली अग्नि को शुद्ध करने के लिए चन्द्रायण तप किया ॥७०॥ अन्त में उसने संन्यास धारण कर विधिपूर्वक प्राणों का परित्याग किया एवं उसके पुण्यफल से वह अपार सुखों तथा गुणों के समुद्र ईशान स्वर्ग में उत्पन्न हुई । वहाँ के निरन्तर दिव्य भोगों से अपनी आयु पूर्ण कर तथा वहाँ से चय कर शुभ कर्म के उदय से अब वह तेरी पुत्री हुई है । इसलिये पूर्व जन्म के स्नेह के कारण जिसका मन राग से अन्धा हो रहा है, ऐसे अजितसेन ने इस विद्याधरी के मन में बलपूर्वक विकार उत्पन्न करता चाहा था । पूर्व जन्म के संस्कार से इस लोक में भी जीवों के स्नेह, बैर, गुण, दोष, राग, द्वेष आदि समस्त विकारी भाव निरन्तर यथावत चल जाते हैं । यही समझ कर बुद्धिमान प्राणी शत्र के प्रति भी विषाद भाव नहीं करते । इसलिये अपनी साथ अन्याय करनेवाले से
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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