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________________ FFFF मार्ग का उल्लंघन कर बलपूर्वक प्रीतिकरा का अपहरण कर लिया । पत्नी के वियोग से सुदत्त का हृदय भी शोक से व्याकुल हो गया एवं वह अपने को पुण्यहीन समझ कर अपनी निन्दा करने लगा । वह मन में | विचार करने लगा-'मैंने कदाचित् पूर्व भव में न तो धर्म का पालन किया था, न तप किया था, न चारित्र का पालन किया था, न दान दिया था एवं न भगवान श्री जिनेन्द्रदेव का पूजन ही किया था ॥३०॥ | इसीलिए मेरे पाप कर्म के उदय से अथवा पुण्यवान न होने के कारण इसने मेरी रूपवती पत्नी का बलपूर्वक हरण कर लिया है । संसार में सुख प्रदायक इष्ट पदार्थों का जो वियोग होता है तथा स्त्री, पुत्र, धन आदि का जो वियोग होता है तथा दुष्ट, शत्रु, चोर, रोग, क्लेश, दुःख आदि अनिष्ट पदार्थों का जो संयोग होता है अथवा अन्य जो कुछ भी प्राणियों का अनिष्ट होता है, वह सब पाप रूप शत्रु के द्वारा ही संचालित हुआ है एवं अन्य किसी प्रकार नहीं हो सकता । मनुष्यों के जब तक पूर्व (पहिले) भव में उपार्जन किया हुआ दुःख देनेवाला पाप-कमों का उदय रहता है, तब तक उन्हें कभी भी उत्तम सुख नहीं मिल सकता । यदि पाप रूपी शत्रु नहीं होता हो, तो फिर मुनिराज गृह त्याग कर वन में जाकर तपश्चरणरूपी खड्ग से किसको निहत करते ? संसार में वे ही सुखी हैं, जिन्होंने अलौकिक सुख प्राप्त करने के लिए चारित्ररूपी शस्त्र के प्रहार से पापरूपी महाशत्रु को निहत कर (मार) डाला है । इसीलिए मैं भी सम्यक् चारित्ररूपी धनुष को लेकर ध्यान रूपी बाण से अनेक दुःखों के सागर पाप रूपी शत्रु को | विनष्ट करूंगा। इस प्रकार हृदय में विचार कर वह वैश्य काल लब्धि के प्राप्त होने से स्त्री, भोग, काया || रा (शरीर) एवं संसार से विरक्त हुआ । तदनन्तर वह दीक्षा धारण करने के लिए सुदत्त नामक तीर्थंकर के समीप पहुँचा एवं शोकादि को त्याग कर तपश्चरण करने के लिए सन्नद्ध हुआ ॥४०॥ समस्त जीवों का हित करनेवाले उन तीर्थंकर को नमस्कार कर उसने मुक्ति रूपी नारी को वश में करनेवाला संयम धारण किया । विरक्त होने के कारण वह बहुत दिन तक काया (शरीर) को क्लेश पहुँचानेवाला कायोत्सर्ग १०९ आदि अनेक प्रकार का घोर तपश्चरण करने लगा । उन मुनिराज न मोक्ष प्राप्त करने के लिए बिना किसी प्रमाद के मरण पर्यन्त ध्यान का अभ्यास किया एवं धर्म ध्यानादिक किया । अन्त में उन्होंने संन्यास धारण कर मन शुद्ध किया, सब आराधनाओं का आराधन किया, हृदय में श्री जिनेन्द्रदेव को विराजमान किया एवं बडे शद्ध परिणाम से प्राणों का त्याग किया। इसलिए उनका जीव उस चारित्र रूप धर्म के पालन 444444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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