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________________ FFFF विजयार्द्ध पर्वत है ॥१०॥ उस पर्वत की उत्तर श्रेणी के शुक्रप्रभ नगर में अपने पूर्व-सन्चित पुण्य के प्रभाव से इन्द्रदत्त नामक विद्याधर राज्य करता था । उसके यशोधरा नाम की शुभ लक्षणों से युक्त रानी थी, उस राजदम्पति का वायुवेग नाम का पुत्र में हूँ । समस्त विद्याधर मुझे सम्मान देते हैं । उसी श्रेणी के किन्नरगीत नाम के नगर में चित्रशूल नाम का विद्याधर राज्य करता था, उसके सुकान्ता नाम की पुत्री थी । सुकान्ता | का विवाह विधिपूर्वक मेरे साथ हुआ था। उसके गर्भ से यह शान्तिमती नाम की शीलवती पत्री उत्पन्न हुई। यह धर्म एवं भोग की सिद्धि के लिए पूजा की सामग्री लेकर मुनिसागर नामक पर्वत पर विद्या-सिद्धि करने के लिए गई थी। जब यह विद्या सिद्ध कर रही थी, उस समय यह दुष्ट कामातुर पापी उसकी विद्या-सिद्धि मे विघ्न डालने के लिए वहाँ उपस्थित हुआ । परन्तु पुण्य कर्म के उदय से सब कार्यों को सिद्ध करनेवाली एवं सुख प्रदायनी सारभूत वह विद्या मेरी पुत्री को उसी समय सिद्ध हो गई । उस विद्या के प्रभाव के भय से यह पापी आपकी शरण में आया है एवं प्रतिशोध हेतु मेरी पुत्री भी उसे दण्डित करने के लिए पीछे-पीछे चली आई है । विद्या-सिद्धि करने की आवश्यक पूजा-सामग्री लेकर जब मैं वहाँ पहुँचा, तो अपनी पुत्री को नहीं देखा । निदान पद-चिन्हों का अनुसरण करते हुए मैं भी इसी मार्ग से शीघ्र ही इनका पीछा करता हुआ यहाँ आ पहुँचा हूँ । हे नाथ ! इस प्रकार मैंने अपना समस्त वृत्तान्त आपको कह सुनाया है। अब आप इस दुष्ट के लिए जो उचित समझें सो न्याय करें ॥२०॥ उसका आवेदन सुनकर वे अवधिज्ञानी सम्राट कहने लगे-'इसने विद्या सिद्ध करने में जो भारी विघ्न उत्पन्न किया था, उसको मैं जानता हूँ। मैं अपने अवधिज्ञान से ज्ञात कर तुम लोगों के पूर्व भव की कथा सुनाता हूँ, सब ध्यानपूर्वक सुनो । एक समय इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में गान्धार देश के विंध्यपुरी नगर में विंध्यसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके सुलक्षणों वाली सुलक्षणा नाम की रानी थी। उन दोनों के नलिनकेतु नाम का पुत्र था । उसी नगर में धनदत्त नाम का एक धनी वैश्य रहता था एवं श्रीदत्ता नाम की उसकी पत्नी थी। उन दोनों के सुदत्त नाम का पुत्र था एवं प्रीतिकरा नाम की उनकी पुत्रवधू थी, जो रूप, लावण्य एवं गुण की साक्षात निधि थी । एक दिन प्रीतिकरा वन में विहार करने के लिए गई थी, वहाँ पर नलिनकेतु की दृष्टि उस पर पड़ गई एवं पाप-कर्म के उदय से वह उस पर कामासक्त हो गया । वह उसके वियोग में अत्यन्त में विकल हो गया एवं उग्र कामाग्नि को वह नहीं सका । इसलिए उस अन्यायी मूढ़ ने न्याय 444444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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