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________________ यह मोह, काम आदि अपनी सेना के साथ होते हुए भी भयभीत हो रहा है । आप तीनों ज्ञानों के धारक हैं, इसलिये आप को बोध कौन करा सकता है ? आप संसार के समस्त जीवों को बोध कराने वाले हैं। आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी तीर्थ की प्रवृत्ति नहीं कर सकता । इसलिये हे देव ! आप मोहरूपी महायोद्धा का विनाश कर मोक्ष को सिद्ध करनेवाली एवं अपनी आत्मा का तथा अन्य जीवों का कल्याण करनेवाली श्री जिनेश्वरी दीक्षा शीघ्र ही धारण कीजिये।' इस प्रकार वैराग्य उत्पन्न करनेवाली स्तुति को कर तथा बारम्बार उनको नमस्कार कर वे लौकान्तिक देव अपना कार्य पूर्ण कर अपने-अपने स्थान को चले गये । भावी तीर्थंकर क्षेमंकर ने अपार विभूति के साथ वज्रायुध कुमार का राज्याभिषेक कर उनको अपना राजा पद दे दिया एवं स्वयं दीक्षा धारण करने के लिए प्रस्तुत हुए । सर्वप्रथम देवों ने उनका अभिषेक किया, फिर वस्त्रों-आभूषणों से विभूषित हो कर वे उत्तम पालकी में बैठ कर महल से वन को गये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने सिद्धपद प्राप्त करने के लिये सिद्धों को नमस्कार कर पंचमुष्ठियों से अपने केशों का उत्पाटन (अर्थात केशलोंच) किया । इस प्रकार इन्द्रों से पूजित होकर भी उन्होंने विरक्त भावों से अन्तरंग-बहिरंग उपाधियों (परिग्रहों) का त्याग किया एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए दीक्षा धारण की । तदनन्तर वे द्वादश प्रकार का घोर तपश्चरण करने लगे, अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए कृत-कारित आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार ग्रहण करने लगे ॥२३०॥ वे सब प्रमादों को नष्ट कर चित्त को स्थिर करने के लिए समस्त इन्द्रिय को वश में करने के लिए सिंह के समान निरन्तर श्रुतज्ञान का अभ्यास करने लगे। उन्होंने ध्यानादि की सिद्धि के लिए अपने चित्त को मोह रहित, अहंकार-रहित, जितेन्द्रिय, क्रोधरहित एवं निर्मल बना डाला । धीर-वीर क्षेमकर ने क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर शुक्लध्यानरूपी खड्ग से मोहरूपी शत्रु का संहार किया एवं वे स्वयं निर्विकल्प पद में जाकर विराजमान हुए। उन्होंने अपने ध्यानरूपी तेज से द्वादश गुणस्थान प्राप्त किया एवं घातिया कर्मों का एक साथ विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया । उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए, अपने अवधि ज्ञान से केवलज्ञान की प्राप्ति का ज्ञान इन्द्रों को हो गया । भगवद् भक्ति में तत्पर वे इन्द्र एवं समस्त देवगण अपने-अपने परिवार सहित अपार वैभव विभूति के संग कहाँ आये एवं जलादि अनेक प्रकार के दिव्य द्रव्यों से तीर्थंकर भगवान की पूजा की । तदनन्तर वे भगवान क्षेमकरं समवंशरण एवं चारो प्रकार के संघ के
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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