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________________ में हैं, जो सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से सुशोभित हैं । अथानन्तर-राजा क्षेमंकर पृथ्वी (राज्य) का पालन करते थे; जो प्राप्त था, उसकी रक्षा करते थे एवं जो नहीं ( अभाव) था, उसके उत्पन्न (निवारण) करने का प्रयास (उपाय) करते थे । एक दिन काल-लब्धि प्राप्त होने से उन्हें आत्म-ज्ञान प्राप्त हुआ एवं वे इस प्रकार चिन्तवन करने लगे-'आश्चर्य है कि बिना चारित्र के मेरा बहुत-सा जीवन-काल यों ही बीत गया एवं मोहनीय कर्म के उदय से इन्द्रियों के सुखों के आधीन रहनेबाले मुझे यह प्रतीति भी नहीं हुई। इस संसार में इन तीनों ज्ञानों से भला क्या सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि इन ज्ञामों से तो मोक्षरूपी रमणीरूपी का | मुखकमल भी दृष्टिगोचर नहीं होता । मैं तीर्थंकर हूँ एवं मेरा ज्ञानरूपी जाग्रत नेत्र है, फिर भी व्यर्थ ही बहुत दिनों तक मोहरूपी सागर में यों डूबा रहा । तब भला अन्य अज्ञानी प्राणियों को तो गणना ही क्या है ? ॥२१०॥ जिनके हाथ में दीपक है एवं फिर भी वे कुएँ में गिर पड़ते है, तो उन प्रमादियों का हाथ में दीपक लेना व्यर्थ है । उसी प्रकार जिनका ज्ञान रूपी दीपक प्रज्वलित है एवं तब भी अपनी आत्मा को मोहरूपी अन्धकूप में डाल रहे हैं, उनका ज्ञानादिक का अभ्यास करना व्यर्थ ही है । इस संसार में अज्ञानी जीव ही राज्य-पुत्र-कुटुम्ब आदि जालों से, विषयरूपी साँकलों से एवं दुःखदायी कर्मों से बंधते हैं परन्तु ज्ञानी जीवों को ये राज्यादिक सुख एवं परिवार आदि का समूह सदा स्वप्निल साम्राज्य के समतुल्य प्रतीत होता है । इसलिये जब तक यमराज का निमन्त्रण नहीं आ जाता, तब तक चतुर प्राणियों को धर्म का सेवन कर लेना चाहिये । क्योंकि पीछे यह जीव भी नहीं कर सकता । इस प्रकार का चिन्तवन करने से उन महाभाग क्षेमंकर का मोक्षरूपी रमणी के संग समागम का कारणभूत संवेग (संसार से भय) द्विगुणित बढ़ गया । उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर भावी तीर्थंकर को नमस्कार किया एवं उनके गुणों का वर्णन करनेवाले वचनों से उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया। वे स्तुति कर कहने लगे-'हे देव ! आप तीनों लोकों के नाथ हैं एवं मोक्ष के स्वामी भी आप हैं। हे जिनेन्द्र ! सन्मार्ग में चलनेवाले भव्य जीव रूपी पथिकोंके लिए आप नायक हैं । हे श्री जिनेन्द्रदेव ! भगवद् भक्ति में निमग्न इन्द्रगण भी आपको नमस्कार करते हैं; आपके श्रेष्ठ गुणों की कामना रखते हुए मुनिराज भी आपका ध्यान करते हैं ॥२२०॥ हे स्वामिन् ! आज आपका धर्मोपदेश सुनकर भव्य जीवों का मोह नष्ट हो जायेगा एवं आज अनेक भव्य प्राणी मोक्ष प्राप्त करेंगे । हे नाथ ! आज आपके संवेग रूपी खड्ग धारण करने पर तीनों लोकों के नायकों को जीतनेवाला 44
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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