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________________ श्री शां ति ना थ पु रा ण पक्ष (तर्क) स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि यही सत्य है, तत्वों के यथार्थ स्वरूप को सूचित करनेवाला तथा नयों से कथन करनेवाला है ॥ १९०॥ व्यवहार नय से यह जीव अनित्य है, क्योंकि यह जन्म-मरण-वृद्धावस्था - रोग आदि से रहित है एवं कर्मों से बंधा हुआ है । परमार्थ ( निश्चय ) नय यह जीव सदा नित्य है, क्योंकि निश्चय से यह जीव जन्म-मरण-वृद्धावस्था - बन्ध-मोक्ष-संसार आदि सब से रहित है । त्याग करने योग्य उपचारित सद्भूत (व्यवहार) नय की अपेक्षा से यह जीव शरीर- कर्मों का कर्त्ता है तथा घट-पट आदि सांसारिक कार्यों का कर्त्ता है । अशुद्ध निश्चय नय से यह जीव रागादि भावों का कर्त्ता है। परन्तु शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से न तो यह कर्मों का कर्त्ता है, न रागादि भावों का कर्त्ता है । व्यवहार नय से यह जीव सुख-दुःख देनेवाले कर्मों के फल को सदा भोगता है, परन्तु निश्चय नय से किसी का भोक्ता नहीं है । पर्यायार्थिक नय से जो जीव कर्मों को करता है, वह उसके फल को नहीं भोगता; किन्तु दूसरे जन्म में उसकी भावी पर्याय ही उसके फल को भोगती है । परन्तु निश्चय नय से जो जीव कर्मों को करता है, वही उसके सुख-दुःखरूपी फल को भोगता है, अन्य (दूसरा) कोई नहीं भोगता । निश्चय नय से इस जीव के असंख्यात प्रदेश हैं एवं केवलिसमुद्रघात के समय यह जीव जगतव्यापी हो जाता है । परन्तु समुद्रघात के बिना यह जीव व्यवहार नय से लघुकाय या विराटकाय जैसी काया (शरीर ) पाता है, उसी के अनुसार हो जाता है । इसका कारण यह है कि दीपक की शिखा के समान इस जीव में भी संकोच एवं विस्तार की शक्ति है । उसी से यह जीव छोटे-बड़े शरीर के बराबर हो जाता है। शुद्ध निश्चय नय से जीव केवलज्ञान एवं केवलदर्शन से अभिन्न है अर्थात तन्मय है, परन्तु व्यवहार नय से यह मतिज्ञानी व श्रुतिज्ञानी ही है ॥ २००॥ इस प्रकार जीव के बन्ध-मोक्ष कर्मों का कर्तत्व, भोक्तृत्व आदि सब अनेक नयों से ही बन सकता है । एकान्त नय से तो कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष आदि सब धर्म सर्वथा मिथ्या सिद्ध होते हैं ।' इस प्रकार तत्वों के स्वरूप से आविष्ट वज्रायुध के अमृत तुल्य वचन सुन कर वह देव मोक्ष पद प्राप्त करने सदृश ही परम सन्तुष्ट हुआ । तदनन्तर उसने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट किया एवं स्वर्ग में इन्द्र ने जो उनकी स्तुति प्रशंसा की थी, वह आद्योपान्त कह सुनाया । उस देव ने दिव्य वस्त्रादिक पहिना कर बड़ी भक्ति से उनकी पूजा की, बारम्बार उनकी प्रशंसा की, उनको नमस्कार किया एवं तब स्वर्ग को लौट गया । संसार में वे पुरुष धन्य हैं जिनकी स्तुति इन्द्र भी करता है, देवगण आकर जिनकी परीक्षा लेते श्री शां ति ना थ पु रा ण १०२
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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