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स्त्री-पुरुष जाते हैं एवं इन्द्र-इन्द्राणी के समान सुन्दर जान पड़ते हैं ॥ १४०॥ उन जिनालयों में कितने ही स्त्री-पुरुष तो पूजा की सामग्री लेकर धर्म करने के लिए जाते हैं एवं कितने ही पूजा कर उसमें से बाहर निकलते जाते हैं । दोपहर के समय कितने ही लोग उत्तम पात्रों को दान देते हैं एवं कितने ही द्वार पर खड़े होकर मुनियों की प्रतीक्षा करते हैं । कितने ही पुण्यवानों के गृह में महादान देने से पंचाश्चर्य होते हैं एवं कितने ही धर्मप्राणों के हृदय में उन्हें देख कर दान देने के भाव उत्पन्न होते हैं । शुभ कर्म के उदय से वहाँ के गृहस्थों के भवन गगनचुम्बी हैं एवं धन-धान्य, पुत्र तथा सुन्दर नारियों से परिपूर्ण हैं । वहाँ पर जो प्रजा निवास करती है, वह सब प्रकार से धनी है, धर्मात्मा है, दानशील है, विवेक सहित है, पुण्यात्मा है तथा मनोहारी है । अपूर्व शोभाओं से अलंकृत ऐसे नगर में पुण्य कर्म के उदय से सब जीवों का कल्याण करने वाले क्षेमकर नामक राजा राज्य करते थे । राजा क्षेमंकर धीर-वीर थे, देवगण उनकी सेवा करते थे, समस्त राजागण उनको नमस्कार करते थे । वे चरम शरीरी थे एवं न्याय मार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले थे । वे भावी तीर्थंकर स्वर्गलोक में प्राप्त होनेवाले समस्त आभूषणों से सुशोभित थे, चातुर थे, वज्रवृषभ - नाराच संहनन
धारी थे एवं काया (शरीर ) पर समस्त शुभ लक्षणों तथा व्यन्जनों से सुशोभित थे । संसार की सब उपमाओं से सहित थे, बड़े रूपवान थे, स्वेद ( पसीना ) आदि दोषों से रहित थे, मति श्रुति-अवधि तीनों ज्ञान के धारक थे तथा तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा सदैव पूज्य थे । उनकी महिमा अनन्त थी तथा पन्च - कल्याणकों के वे स्वामी थे। ऐसे वे श्री जिनेन्द्रदेव संसार में धर्म की मूर्ति के समान सुशोभित होते थे । ॥ १५०॥ उनकी कनकचित्रा नामक रानी थी, जो अनिन्द्य सुन्दरी थी । वह हाव-भाव, विभ्रम-विलास में निपुण थी तथा बड़ी पुण्यवती एवं गुणवती थी । उपरोक्त अच्युत स्वर्ग का इन्द्र अपनी आयु पूर्णकर पुण्य कर्म के उदय से इन दोनों के वज्रायुध नामक पुत्र हुआ। वह बड़ा बुद्धिमान था, महा रूपवान था एवं दिव्य शरीर का धारक था । पिता ने अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पुत्र की आराधन, प्रीति, सुप्रीति, धृति, मोद, प्रियद्रव आदि लौकिक क्रियायें सम्पादित की थीं। उसके जन्म से माता के समतुल्य अन्य सब राजमहीषियों को भी सन्तोष हुआ था तथा भावी नरेश (स्वामी) के उत्पन्न होने से परिवार के सदस्यों, प्रजा तथा सेवकों को भी सन्तोष हुआ था । अमृत के समान दुग्ध आदि उत्तम पेय पदार्थों से उसका सुन्दर शरीर बाल-चन्द्रमा के समान बढ़ता था । अनुक्रम से कुमार अवस्था को प्राप्त कर वह जैन सिद्धान्त - शास्त्र,
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