SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ FFFF उत्पन्न हुए कितने ही लोग तपश्चरण के प्रभाव से कर्मों का नाश कर मोक्ष जाते हैं तथा कितने ही रत्नत्रय के प्रभाव से स्वर्ग जाते हैं । चारित्ररूपी धर्म को धारण करने से कितने ही प्राणी 'सर्वार्थसिद्धि' में उत्पन्न होते हैं तथा कितने ही पात्र-दान देने से भोगभूमि में जाते हैं । वहाँ पर असंख्यात तीर्थंकर होते हैं, जिनकी पूजा देव करते हैं तथा गणधर, केवलज्ञानी तथा मुनिराज प्रतिदिन विहार करते रहते हैं। वहाँ पर सद्धर्म (जैनधर्म) सदा विराजमान रहता है। अंग पूर्वरूप श्रुतज्ञान सदा वहाँ रहता है । जिनालय, जिन प्रतिमा एवं मोक्षमार्ग सदा बने रहते हैं । अनेक गुणों से अलंकृत उस देश में रनों से परिपूर्ण रत्नसन्चयपुर नामक एक नगर है, जो कोट (किले) में जड़े हुए आकाश को भी प्रकाशित कर सकनेवाले करोड़ों रत्नों से, चैत्यालय के शिखरों पर लगे हुए रत्नों की किरणों से, अनेक गुण-रत्नों से, स्त्री-रल आदि चौदह रत्नों से, अन्तरंग के अन्धकार का विनाश करनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी रत्नों से, कोट के द्वारों पर जड़ित रत्नों से एवं बाजारों से जौहरियों के रत्नों के ढेरों से दिन-रात शोभायमान रहता है । उस नगर में मनुष्यों के पुण्य कर्म के उदय से पुत्र-रत्न, जवाहिरात एवं सम्यग्दर्शन आदि रत्नों का समूह सदा बना रहता है। इसीलिये उस नगर का 'रत्नसन्चयपुर' सर्वथा सार्थक है । वह नगर सर्वप्रकारेण रत्नों से कुलग्रह के समान सदा सुशोभित रहता है ॥१६०॥ स्वर्ग के समतुल्य वह द्वादश (बारह) योजन लम्बा एवं नौ योजन चौड़ा अकृत्रिम नगर सदैव शोभायमान रहता है । उसके परकोट में, जिनसे रत्नों की किरणे उद्भासित हो रही हैं, जिन पर द्वारपाल सन्नद्ध हैं, ऐसे एक सहस्र (हजार) उच्च एवं मनोहर द्वार है । इसी प्रकार स्वर्ण एवं रत्नों से निर्मित पाँच सौ लघु द्वार प्रतिदिन खुले रहते हैं । विपुल जन-समुदाय से परिपूर्ण मनोहर शोभावाले एवं सदैव एक-से रहनेवाले एक सहस्र (हजार) चौराहे हैं । इसी प्रकार गज, अश्व, रथ पदातिक आदि से परिपूर्ण बारह हजार राजमार्ग हैं । उस नगर में कितने ही रत्नमय जिनालय हैं, कितने ही सुवर्णमय हैं, कितने ही शुद्ध स्फटिक के समान हैं एवं कितने ही वैडूर्यमणि के समान हैं । वे चैत्यालय गगनचुम्बी हैं, विविध प्रकार के हैं, नृत्य-गीत के कोलाहल से गुंजायमान रहते हैं, शिखर पर लगी हुई ध्वजाओं से शोभायमान हैं एवं मनुष्य व स्त्रियों से सदा भरे रहते हैं। वे जिनालय पुष्यों के समूह से व्याप्त रहते हैं, बाजे-गाजे के शब्दों से गुंजायमान रहते हैं एवं सैकड़ों प्रतिष्ठित प्रतिमाओं से धर्म-महासागर के समान जान पड़ते हैं । उन चैत्यालयों में श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करने के लिए वस्त्र-आभूषणों से सुशोभित 42Fb EF
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy