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फलस्वरूप सुख के स्थानभूत अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुए । उस प्रतीन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से वहाँ के इन्द्र द्वारा किये गयेउपकार का स्मरण किया, इसलिये उसने उनको नमस्कार कर उनकी पूजा की । वह प्रतीन्द्र पूर्व भव के स्नेह के कारण उस इन्द्र के साथ इन्द्रियों को तृप्त करने वाले समस्त मनोहर भोगों का सदैव आनन्द लिया करता था । वह प्रतीन्द्र उस इन्द्र के साथ जिनालयों में जाकर सदैव पूजा किया करता था एवं जिनेन्द्र भगवान के कल्याणकों में परमोत्सव मनाया करता था । समस्त प्रकार के अतिशयों से सुशोभित एवं परस्पर स्नेह रखनेवाले वे दोनों (इन्द्र एवं प्रतीन्द्र) पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य के प्रभाव से सुखसागर में निमग्न हो रहे थे । अथानन्तर-इसी जम्बूद्वीप में गुणों के सागर पूर्व-विदेह क्षेत्र में मंगलावती नाम का एक मनोहर देश है ॥११०॥ वह मंगलावती महादेश अनादि निधन है, सीता नदी तथा कुल पर्वत के मध्य में स्थित है एवं वक्षारगिरि तथा वन की वेदी से आवृत्त (घिरा हुआ) है । उसके मध्य में विजयार्द्ध पर्वत स्थित है, उसकी दो गुफाओं में से गंगा व सिन्धु नामक नदियाँ प्रवाहित होती हैं । इन सब से अर्थात गंगा, सिन्धु एवं विजयार्द्ध पर्वत से उस विशाल देश के छः खण्ड हो गये हैं । सीता नदी, विजयार्द्ध पर्वत एवं गंगा सिन्धु नदियों के मध्य भाग में आर्यखण्ड शोभायमान है, उस आर्यखण्ड में सदैव आर्य जन ही निवास करते हैं । वह मंगलावती देश श्री जिनेन्द्रदेव तथा निर्ग्रन्थ मुनियों की वन्दना के उत्सवों से, यात्रा-पूजा-प्रतिष्ठा आदि धर्मध्यान के सैकड़ों उत्सवों से, विवाह आदि अन्य अनेक पारिवारिक उत्सवों से तथा अन्य मांगलिक कार्यों में भी सदैव शोभायमान रहता है । इसलिये उस देश का 'मंगलावतो' नाम सार्थक है । वह देश पुण्यवान जन-समुदाय से भरा हुआ है एवं सदैव मांगलिक कार्यों में सुशोभित है । वह देश समस्त प्राणियों को सुख प्रदायक फलों से परिपूर्ण मनोहर वन, ध्यान में विराजमान कायोत्सर्ग धारण किये हुए मुनिराजों एवं मुनिराज के मुखारविन्द से वर्णित सिद्धांत-शास्त्र के शब्द-समूह से मुनियों के श्रेष्ठ चारित्र के समान शोभायमान है । उस देश के ग्राम बड़े मनोहर हैं, पास-पास स्थित हैं, उनमें अनेक चैत्यालय स्थापित हैं, धर्मात्मा तथा सज्जन जन वहाँ निवास करते हैं । उस देश में वर्षा न तो अधिक होती है एवं न ही कम । चोर, चूहे, तोते, टोड़ी आदि का भय भी नहीं है; न उसमें कुदेवों के मन्दिर हैं, न वहाँ पाखण्डी तथा कुधर्मी हैं ॥१२०॥ वह देश तीनों वर्गों की जनता से भरपूर है, सैकड़ों मुनि उसमें विहार करते हैं तथा गाँव, खेट, मटंव आदि सभी उपभाग उस देश में मौजूद हैं । उस देश में
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