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रहित, धीर-वीर एवं समस्त जीवों का हित करने में तत्पर सुरामरगुरु नाम के मुनिराज के समीप पहुँचा ॥१०॥ उस पुण्यवान ने मुनिराज को नमस्कार कर उनकी आज्ञानुसार वस्त्रादिक बाह्य परिग्रह एवं मिथ्यात्वादिक आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर दीक्षा धारण की । उसने समस्त जीवों का हित करनेवाले आगम (शास्त्र) का अभ्यास किया एवं फिर मोक्षरूपी गृह में प्रवेश के लिए अनेक प्रकार से तपश्चरण करने लगा । एक दिन वे मुनिराज काया (शरीर) से ममत्व त्याग कर कर्मों का नाश करने के लिए तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए नन्दन नामक पर्वत पर प्रतिमा योग धारण कर विराजमान हुए । पूर्व भव के अश्वग्रीव का अनुज सुकण्ठ संसार में परिभ्रमण कर अज्ञान तप के फलस्वरूप कहीं पर दुष्ट असुर हुआ | था । उस समय वह असुर कहीं जा रहा था। मार्ग में उसने सब तरह के परिग्रहों से रहित एवं पर्वत के समान अचल ध्यानारूढ़ मुनिराज को देखा । उनके दर्शन करने मात्र से ही उस दुष्ट पापी को क्रोध उत्पन्न हो आया एवं फलस्वरुप भय उत्पन्न करानेवाला एवं घोर कष्टदायक उपसर्ग मुनिराज के ऊपर करने लगा । चित्त को डिगानेवाले वध, बन्धन, ताड़न, दुर्वचन एवं हाव-भाव आदि अनेक प्रकार के विकारों से वह दुष्ट मुनि पर उपसर्ग करने लगा । परन्तु उन मुनिराज ने घोर उपद्रवों को जीत कर अपने मन को आत्मध्यान में लगाया एवं निर्भय हो कर मेरु पर्वत के समान निश्चल विराजमान रहे । दैवयोग से कदाचित् पर्वतों की श्रेणियाँ चलायमान हो जायें, परन्तु धीर-वीर मुनियों का ध्यान में प्रवृत्त मन किसी भी समय में चलायमान नहीं हो सकता । उस दुष्ट ने मुनिराज को उनके ध्यान से चलायमान करने की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु वह उन्हें विचलित भी न कर सका । इसलिये लज्जित एवं विवश हो कर वह अदृश्य हो गया ॥१००॥ संसार में ऐसे मुनिराज धन्य हैं, जो दुर्जनों के द्वारा घोर उपसर्ग करने पर भी अपने ध्यान से किन्चित् भी चलायमान नहीं होते । ऐसे मुनिराज के चरण-कमलों के इन्द्र, चक्रवर्ती आदि समस्त श्रेष्ठ जन नमस्कार करते हैं । इसलिये मैं भी उनके समान पद (अवस्था) प्राप्त करने के लिए शीश नवा कर उनको नमन करता हूँ। उन मुनिराज ने जीवन-पर्यन्त तपश्चरण किया एवं अन्तमें अपनी आयु अल्प जान कर अपनी शक्ति प्रकट कर संन्यास धारण कर लिया। उन मुनिराज ने श्री जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों में अपना चित्त लगाया, शुभ भावनाओं का आराधन किया एवं अपनी काया आदि से परिणामों का त्याग किया । वे मेघनाद मुनि सन्यास की श्रेष्ठ विधि के अनुसार अपने प्राणों का त्याग कर, उत्तम चारित्र के
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