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श्री
तिर्यंच या म्लेच्छ ही इनका सेवन करते हैं, ये स्वर्गरूपी भवन में जाने से रोकने के लिए अवरुद्ध कपाट (बन्द किवाड़ ) हैं । मोक्ष मार्ग के पथिकों के लिए ये दस्यु हैं, अपहरणकर्त्ता हैं । ये विषयरूपी सर्प के समतुल्य हैं तथा रोग-क्लेश आदि दुःखों के समान हैं, इसलिए इन्हें शत्रु समझ कर तू इनका त्याग कर । तीनों लोकों में उत्पन्न हुए भोगों का सेवन करने पर भी तृष्णारूपी अग्नि निरन्तर ही उग्रतर होती रहती है एवं बिना चारित्र रूपी जल के वह कभी शान्त नहीं होती, कभी नहीं बुझता । यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है । इसको प्राप्त कर भी ज़ो अज्ञानी बिना धर्म के केवल भोगों का ही उपभोग करता है, वह बहुमूल्य मणि को त्यागकर नगण्य काँच को ग्रहण करता है । तुमने बहुत दिनों तक विद्याधरों का ऐश्वर्य भोगा, अब इन्हें त्याग कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए बहुमूल्य तपश्चरण धारण करो ॥८०॥ यदि तुम इन विषयों से उत्पन्न होनेवाले सुखों को न त्यायोगे, तो फिर नरकों के वचनातीत दुःख पूर्व भव के समान ही भोगोगे । हे विद्याधर ! क्या तू नरक के प्रचण्ड दुःख भूल गया, जो चारित्र को त्याग कर अब इन्द्रियों के सुखों का सेवन कर रहा है ? यह राज्य का भार अनेक प्रकार से बैर ( शत्रुता ) उत्पन्न करानेवाला है, अनेक प्रकार के अशुभ कर्म-बन्ध करानेवाला है, नरक का निमित्त (कारण) है, धर्म का विनाश करनेवाला है । विद्वान सदैव इसकी निन्दा करते हैं, इसलिए तुम इसका त्याग करो । यह परिवार भी केवल मोह बन्ध करानेवाला है, क्रूर है, धर्म का नाश करवानेवाला है एवं पाप कर्मों की प्रेरणा देनेवाला है; इसलिये चारित्र धारण करने के लिए तुम इसका भी यथा शीघ्र त्याग करो । समस्त प्रकार के दुःखों के सागर मोहरूपी महाशत्रु का नाशकर जिनेश्वर दीक्षा धारण करो । जिनेश्वरी दीक्षा ही सब प्रकार की चिन्ता - संकल्प-विकल्प आदि से रहित है, समस्त कर्मों का नाश करनेवाली है, सब जीवों का हित करनेवाली है, देवगण भी इसकी पूजा करते हैं, मोक्ष की यह जननी है, अनन्त सुख प्रगट करने का भण्डार है, तीर्थंकर की विभूति प्रदायनी है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि सभी इसकी सेवा करते हैं, तीनों लोक इसको नमस्कार करते हैं। अनेक गुणों से यह भरपूर है, कामरूपी वन को जलाने के लिए यह अग्नि के समान है । चतुर एवं धीर-वीर प्राणी ही इसे धारण कर सकते हैं। यह स्वर्गरूपी गृह का सोपान ( सीढ़ी) है एवं सर्व प्रकारेण उपमाओं से रहित है । इस प्रकार इन्द्र के उपदेश से काल-लब्धि के प्राप्त हो जाने से वह विद्याधर उसी समय वैराग्य एवं रत्नत्रय को प्राप्त हुआ। वह विद्याधर तत्काल परिग्रह
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