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________________ FFFFFF मेघवाहन नाम का विद्याधर राज्य करता था। उसकी धर्मात्मा रानी का नाम मेघमालिनी था ॥६०॥ उन दोनों के मेघनाद नाम का पुत्र हुआ था । यह मेघनाद अनन्तवीर्य का जीव था, जो कि सम्यकदर्शन के प्रभाव से अपनी नरक की आयु पूरी कर यहाँ आकर उत्पन्न हुआ था । वह रूपवान मेघनाद, दूध, अन्नपान आदि योग्य द्रव्यों के द्वारा 'बाल चन्द्रमा' के समान वृद्धि को प्राप्त हुआ था । कुमार अवस्था को प्राप्त कर उसने जैनागम का अभ्यास किया एवं धर्म-राज्य चलाने के लिए शस्त्रों का भी यथेष्ट अभ्यास किया । यौवनावस्था प्राप्त कर उसने पिता का स्थान (राज्य) ग्रहण किया एवं अपने पुण्य तथा पौरुष के बल से विजयार्द्ध पर्वत की दोनों श्रेणियों पर आधिपत्य स्थापित किया । एक दिन वह मन्दराचल पर्वत के नन्दन वन में जाकर मन्त्र पूजा के द्वारा 'प्रज्ञप्ति' नाम की विद्या को सिद्ध कर रहा था । किसी कारण से वहीं पर उपरोक्त अच्युतेन्द्र आया तथा उसे देखकर स्नेहवश कहने लगा-'हे मित्र ! तू मुझे पहचानता है या || नहीं ? मैं अच्युत स्वर्ग का इन्द्र हूँ। मैं पूर्व भव में अपराजित नामक बलभद्र पदवी का धारक था एवं तू अनन्तवीर्य नाम का अर्द्धचक्रवर्ती मेरा अनुज था । उस जन्म में तूने धर्माराधन तो किया नहीं, अपितु बहुत-से आरम्भों के द्वारा अपार पाप अर्जित किया था, जिसके फलस्वरूप तू अपार असह्य दुःखों से भरे हुए पहिले नरक में गया था । पूर्वजन्म के स्नेह के कारण उस जन्म के पिता के जीव (धरणेन्द्र) ने आकर तुझे यथोचित धर्मोपदेश दिया एवं सम्यग्दर्शन ग्रहण करवाया था, जिसके फल से तू विजयार्द्ध पर्वत पर पूज्य तथा श्रेष्ठ कुल में अब विद्याधर सम्राट मेघनाथ हुआ है । आज अनेक विद्याधर तेरे चरणों की वन्दना करते है ॥७०॥ मैं तपश्चरण से अशुभ कर्मों का नाशकर सुख की खानि एवं अतिशय विभूति का एकमात्र स्थान अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ हूँ। क्या तू कु-मार्ग में ले जानेवाले इन भोगों का भोग अब भी करता है ? क्या तू बालक के समान नरकों के दुःख भूल गया ? ये भोग घोर नरक के कारण हैं, धर्मरूपी मणियों के चोर हैं, किंपाल फल के समान अन्त में दुःख देनेवाले हैं, खल (दुष्ट ) हैं । इनसे कभी तृप्ति प्राप्त नहीं होती । ये विद्युत के.समान अत्यन्त चंचल हैं, बड़ी कठिनता से प्राप्त होते हैं । मुनिगण सदैव इनकी निन्दा करते हैं । ये दुःख से उत्पन्न होते हैं एवं अनेक दुःखों को देनेवाले हैं । ये भोग पराधीन हैं, शरीर आदि को दुःख देने के लिए प्रगट होते हैं, चारों गतियों में परिभ्रमण करानेवाले हैं; राग के कारण हैं एवं मूर्खजन ही इनको ग्रहण करते हैं । ये सब प्रकार के दोषों की खानि हैं, समस्त काया को जलानेवाले हैं, F. PF 6 ०४
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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