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________________ श्री शां ति ना थ पु रा ण श्री शां ति ना थ मद, छः अनायतन एवं आठ शंकादिक ( आंठों अंगों का पालन न करना) -ये पच्चीस सम्यग्दर्शन के दोष कहलाते हैं । तू देवमूढ़ता, लोकंमूढ़ता एवं शास्त्रमूढ़ता अथवा गुरुमूढ़ता का त्याग कर; क्योंकि ये तीनों मूढ़तायें नरक का कारण हैं । जाति, कुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल एवं बड़प्पन- ये आठ सम्यग्दर्शन, का घात करनेवाले हैं; इसलिये इनका भी तू त्याग कर । मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र एवं इनके आराधन करनेवाले दुर्जन- ये छः अनायतन कहलाते हैं । ये संसार के कारण हैं, इनका तू त्याग कर । पहिले जो निःशंक आदि सम्यग्दर्शन के अंगों का वर्णन किए गये हैं, उनके विपरीत शंकादि सम्यग्दर्शन के दोष कहलाते हैं; उनको भी तू त्याग कर । तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई हित करनेवाला नहीं है; यह सम्यग्दर्शन ही तीनों लोकोंमें मनुष्यों के लिए सब प्रकार के कल्याण करने का एकमात्र साधन है । यह सम्यग्दर्शन मोक्ष-महल की पहिली सीढ़ी है एवं तीर्थंकर आदि की विभूति कामल कारण है ॥५०॥ मैं तो यही मानता हूँ कि इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के पदों को देनेवाले तथा सुखों के कारण सम्यक्दर्शन को जिसने निर्दोष स्वीकार किया है, वही संसार में पुण्यात्मा है । इस प्रकार उस धरणेन्द्र के वचन एवं सम्यक्दर्शन का माहात्म्य सुन कर वह बुद्धिमान नारकी कहने लगा- 'हे तात! मैंने मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक आज शुभ सम्यक्दर्शन स्वीकार किया । मैं अब अरहन्त देव का ही आराधन करूँगा, निर्ग्रथ गुरु का सेवन करूँगा, अहिंसारूप धर्म को मानूंगा एवं सातों तत्वों का श्रद्धान करूँगा । अब मैं निश्चयरूप से सम्यक्दर्शन रूपी जलयान को ही अपनी शरण मानूंगा; यही मुझे इस नरकरूपी महासागर से शीघ्र ही पार करा देगा ।' जिस प्रकार किसी दरिद्र को अमूल्य निधि मिल जाने से आनन्द होता है, उसी प्रकार उस बुद्धिमान नारकी को सम्यक्दर्शन की प्राप्ति से आनन्द हुआ। तदनन्तर वह धरणेन्द्र के चरणों में नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगा- 'हे स्वामिन् ! आपके प्रसाद से मैं ने सम्यकदर्शन धारण किया । आप पहिले जन्म में भी हित करनेवाले मेरे पिता थे एवं इस जन्म में भी हित करनेवाले पिता हैं ।' इस प्रकार सम्भाषण कर उस नारकी ने अपने पिता का सम्मान किया, बारम्बार उनकी प्रशंसा की एवं फिर वह शान्त हो गया । अपने कार्य की सिद्धि होने से जिसे आनन्द प्राप्त हो रहा है, ऐसा वह धरणेन्द्र भी उसे सम्यक्दर्शन स्वीकार करवा कर अपने विमान को लौट गया । अथानन्तर- इसी जम्बूद्वीप में धर्म के स्थानभूत भरतक्षेत्र में विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ नाम का नगर है । उस नगर में पुण्य कर्म के उदय से पु रा ण ९३
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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