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________________ . Fb F PF को प्रकट करनेवाला जिनागम के सिवाय अन्य कोई आगम नहीं हैं, धर्मात्माओं से प्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई स्नेह नहीं है एवं मोक्ष के सामने अन्य कोई सुख नहीं है । रत्नत्रय के समान अन्य कोई रन नहीं एवं तीनों लोकों में सुपात्र दान के समान अन्य कोई दान नहीं। श्री जिनेन्द्र देव की पूजा के समान अन्य कोई कल्याण करनेवाली पूजा नहीं । इन सब बातों का निश्चय (श्रद्धान) करना सम्यग्दर्शन का मूल कारण है । ॥३०॥ मुनिराजों ने तत्वों का श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन बतलाया है । इसलिए तू मन को निर्मल कर तत्वों का श्रद्धान कर । जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष-ये सात तत्व जिनागम में कहे गए हैं। अब मैं सम्यग्दर्शन को शुद्ध करने के लिए एंव आत्म-कल्याण करने के हेतु अजर-अमर पद प्रदायक एवं कर्मों का नाश करनेवाले सम्यग्दर्शन के गुणों को कहता हूँ, उसे तू ध्यानपूर्वक सुन । देव, गुरु, तत्व, धर्म एवं शुभ शंका का त्याग कर सुख प्रदाता 'निःशंकित अंग' को धारण कर । तू इहलोक-परलोक सम्बंधी भोगों की आकांक्षाओं का तथा स्वर्ग, मनुष्यों के राज्य की आकांक्षाओं का त्याग कर एवं स्वर्ग-मोक्ष प्रदायक 'निःकांक्षित अंग' का पालन कर । सब संस्कारों का त्याग करने के कारण जिनके सारे शरीर पर मैल लगा हुआ है, मुनि के ऐसे शरीर को देख ग्लानि मत कर, वरन सदा 'निर्विचिकित्सा अंग' का पालन कर । देव, गुरु, धर्म, तत्व, दान तथा श्री जिनेन्द्र देव के पूजन में मूर्खतारूप भावों का त्याग कर 'अमूढ़दृष्टि अंग' का सेवन कर । श्री जिनेन्द्र देव के पवित्र शासन में बालक या अशक्त लोगों को किसी प्रकार का दोष लग जाने पर उसे प्रकट न कर उसको छिपा कर 'उपगूहन अंग' का पालन कर । किसी के व्रत, चारित्र या सम्यग्दर्शन से चलायमान होने पर, डिगने पर, उसको अपने धर्म (सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र) में दृढ़ कर 'स्थितिकरण अंग' का पालन कर । अपने साधर्मियों में, गुरु में, धर्मात्मा मनुष्यों में, शास्त्रों के मर्मज्ञों में, बछड़े से सद्यः प्रसूता गाय के समान प्रेम कर 'वात्सल्य अंग' का पालन कर ॥४०॥ मिथ्या मतों को दूर कर तपश्चरण, दान, पूजा, एवं हृदय की शुद्धि के द्वारा तू जैन धर्म की प्रभावना कर । जिस प्रकार के राज्य सब अंगों को सुशोभित राजा संसार में अपने शत्रुओं का नाश करता है। उसी प्रकार उपरोक्त इन आठों अंगों से सुदृढ़ किया हुआ सम्यग्दर्शन कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट कर देता है । इसलिये तू स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त करने के लिए चन्द्रमा के समान निर्मल, उपमा रहित एवं सुख के स्थान ऐसे सम्यग्दर्शन को आठों. अंगों के साथ अंगीकार कर । तीन मूढ़ता, आठ 444 4
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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