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________________ ना थ पु रा ण हैं, उनको पार कराने के लिए स्वर्ग-मोक्ष देनेवाली धर्मरूपी नाव की मुनिराज ने बतलाई है। जो मूर्ख धर्मरूपी जहाज पर सवार नहीं होते, वे दुःखरूपी मछलियों से भरे हुए इस संसाररूपी समुद्र में सदा डूबते उतारते रहते हैं । यह धर्म ही भाई है, धर्म ही श्रेष्ठ मित्र है, धर्म ही हित करनेवाला स्वामी हैं, धर्म ही माता-पिता है एवं धर्म ही साथ जानेवाला है, संसार में अन्य कोई ऐसा हित करनेवाला नहीं है । भाईबन्धु इस लोक में हित करें या न भी करें, परन्तु धर्म इहलोक तथा परलोक में सब जगह जीवों का हित करता है । इसलिये यही समझ कर तू जीवों की दया से उत्पन्न होनेवाला सद्धर्म धारण कर एवं समस्त पापों को त्याग दे; क्योंकि यह धर्म ही दुःखरूपी वन को जलाने के लिए अग्नि के समान है । धरणेन्द्र की बात सुनकर, जिसका सब शरीर काँप रहा है एवं जो पापों से डर रहा है ऐसा वह दीन नारकी उसे नमस्कार कर कहने लगा- 'हे तात ! जो नरकों के दुःखों से बचानेवाला है, संसाररूपी समुद्र से पार करानेवाला है, उत्तम है एवं श्री जिनेन्द्र देव का कहा हुआ है, ऐसा धर्म कौन-सा है ? मुझ पर कृपा कर आप कहिये ।' इसके उत्तर में वह धरणेन्द्र उस नारकी से कहने लगा- 'हे वत्स ! मैं धर्म का स्वरूप कहता हूँ, तू मन लगा कर सुन' ॥२०॥ सम्यग्दर्शन धारण करने से ही परम पवित्र धर्म की प्राप्ति मनुष्यों को होती है। श्री जिनेन्द्र देव के चरण-कमलों में भक्ति करने से, तत्वों का श्रद्धान करने से एवं शास्त्रों का अभ्यास करने से धर्म की प्राप्ति होती । मुनियों के व्रत पालन करने से 'पूर्ण धर्म' की प्राप्ति होती है, पूर्ण धर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है एवं गृहस्थों के व्रत पालन करने से 'एकदेश धर्म' की प्राप्ति होती है। यह धर्म स्वर्ग का कारण है । इसके सिवाय सत्पात्रों को दान देने से धर्म होता है, श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करने धर्म होता है, कठिन तपश्चरण करने से धर्म होता है एवं बारह भावनाओं का चिन्तवन करने से मनुष्यों को धर्म की प्राप्ति होती है । इनमें से दुःखरूपी पिशाच से घिरे हुए नारकियों में मुनि या श्रावक के व्रतों का एक अंश भी नहीं होता है। इस नरक में उत्पन्न होनेवाले जीवों के केवल सम्यग्दर्शन की ही योग्यता है एवं यह सम्यग्दर्शन धर्म की जड़ है तथा प्राणियों को नरक से दूर रखनेवाला है । इसलिए तू सम्यग्दर्शन का घात करनेवाली मिथ्यात्व आदि सात अशुभ निन्द्य प्रकृतियों का नाश कर तथा सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर । श्री जिनेन्द्रदेव के अतिरिक्त अन्य कोई देव पूज्य नहीं, दया के बिना अन्य कोई धर्म नहीं, आत्म-तत्व के सिवाय अन्य कोई तत्व नहीं एवं निर्ग्रथ के अलावा अन्य कोई गुरु नहीं हैं। संसार भर के समस्त तत्वों श्री शां ति ना थ पु रा ण ९१
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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