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आप मुझे सदैव शान्ति प्रदान कीजिये ।
इस प्रकार श्री शान्तिनाथ पुराण में अनन्तवीर्य के दुःखों एवं अच्युतेन्द्र के सुखों का वर्णन करनेवाला यह सातवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥७॥
आठवाँ अधिकार मैं अपने पाप शान्त करने के लिए शान्तामृत-रूपी रस के सागर एवं तीनों लोकों में शांति देनेवाले श्री शान्तिनाथ तीर्थंकर को मन-वचन-काय से मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ॥१॥
अथानन्तर-राजा स्तिमितसागर का जीव, जो धरणेन्द्र हुआ था, वह अपने अवधिज्ञान से अनन्तवीर्य (अपने पुत्र) को नरक में पड़ा हुआ जानकर उसे समझाने के लिए वहाँ गया । वह स्तिमितसागर का जीव धरणेन्द्र अपने पुत्र अनन्तवीर्य को दुःख-सागर में निमग्न देखकर उसका उद्धार करने के लिए करुणावश निम्नोक्त वचन उसके सामने कहने लगा-'हे नारकी ! तूने पूर्व भव में कोई पुण्य कार्य नहीं किया था, न तो मुनियों को उत्तम दान दिया था एवं न श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा की थी । न गृहस्थों के योग्य व्रत धारण किये, न सम्यग्दर्शन धारण किया तथा न श्री जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों की सेवा की । विषय-रूपी माँस के लोलुप होकर तुझ मूर्ख ने बहुत-सा आरम्भ धारण कर निरन्तर पाप उपार्जन किया था। जिसके फल से ही तुझे यह असह्य, अशुभ तथा प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाला अनेक प्रकार का घोर दुःख भोगना पड़ा है । तुझे इस दुःख से छुड़ाने के लिए इन्द्र या नरेन्द्र कोई भी समर्थ नहीं है । यदि कोई समर्थ है, तो वह पाप-कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान धर्म ही समर्थ है । यह धर्म ही जीव के साथ जाता है, पग-पग पर उसका हित करता है, स्वर्ग का राज्य दिलाता है एवं वचनातीत सुख देता है । जो जीवों को अधोलोक से निकल कर शाश्वत मोक्ष-सुख में स्थापित कर दे, वही धर्म है। यह धर्म स्वर्गमोक्ष को देनेवाला है ॥१०॥ यह धर्म सन्चित किये हुए पापों को भी नष्ट कर देता है एवं तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकार के कल्याणों को देता है । जिस मोक्ष-लक्ष्मी की सेवा श्री जिनेन्द्रदेव भी करते हैं एवं मुनिराज अपने कठिन तपश्चरण एवं संग्रम के द्वारा सदा जिसकी प्रार्थना करते रहते हैं, ऐसी वह मोक्षरूपी लक्ष्मी धर्मात्मा लोगों को ही प्राप्त होती है। जो मनुष्य दुःखरूपी महासागर में डूबे हुए
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