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________________ EFFFF सम्यग्दर्शन की अभिवृद्धि हेतु विपुल विभूति एवं भक्ति से देवों के साथ पन्च-कल्याणकों में जाकर पूजा किया करता था । ज्ञान एवं निर्वाण-कल्याणक की तिथि पर वह इन्द्र अपने परिवार के संग विपुल विभूति से केवलज्ञानियों की पूजा किया करता था। वह इन्द्र मध्यलोक में मेरु पर्वत, कुण्डल पर्वत, रुचक पर्वत तथा नन्दीश्वर द्वीप में जाकर श्री जिनेन्द्र देव की प्रतिमाओं की महापूजा किया करता था । इस प्रकार सब देव जिसकी पूजा किया करते थे, ऐसा वह अच्युतेन्द्र धर्म में लीन होकर बाईस सागर पर्यन्त सुख-सागर में निमग्न रहा था । सब देव जिसकी सेवा करते हैं, जो देव-देवियों से पूर्णतः वेष्टित (घिरा) है, जिसे किसी तरह की कोई बाधा नहीं है, जो विक्रिया ऋद्धि से उत्पन्न हुआ है तथा सब पापों से रहित है, स्वर्ग के राज्य को प्राप्तकर ऐसा वह अच्युतेन्द्र अपने चारित्र फल के उदय से प्राप्त हुए उत्तम सुखों का उपभोग करता था ॥२५०॥ देखो, दो भ्राताओं ने विभिन्न प्रकार से राज्य का फल भोगा था, उनमें से एक तो अच्युत स्वर्ग का इन्द्र हुआ एवं दूसरा पाप के फल से महादुःख दायक नरक में गया । यह समझकर बुद्धिमानों को अपनी आत्मा का हित करना चाहिए । यह धर्म परम्परागत रूप से भी सुख का प्रदाता है; इसलिये बुद्धिमान लोग धर्म का ही सेवन करते हैं । इस धर्म के ही प्रभाव से देव पद प्राप्त होता है, इसलिये मैं इस धर्म को सदा नमस्कार करता हूँ। इस धर्म से ही मोक्षा का अक्षय सुख प्राप्त होता है, इस धर्म का बीज कारण मन की शुद्धि है; इसलिये मैं अपने हृदय को धर्म में ही लगाता हूँ। हे धर्म ! सदा मेरी रक्षा कर ! जिनके हृदय में नारी-सुख की अभिलाषा है, उनको यह श्रेष्ठ नारी-रत्न से समागम करा देता है । जो राज्य चाहते हैं, उन्हें विशाल राज्य दिलाता है । जो सुख चाहते हैं, उन्हें सुख देता है । जो स्वर्ग की कामना करते हैं, उन्हें स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करता है एवं जो मोक्ष के अभिलाषी हैं, उन्हें मोक्ष प्राप्त कराता है । संसार में ऐसा कौन-सा पदार्थ है, जो धर्म के सहारे प्राप्त न हो सके ? इस धर्म से तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले समस्त सुख प्राप्त होते हैं । श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्रदेव ही शान्ति रूप सुख के प्रदाता हैं, इसीलिये विद्वतजन श्री शान्तिनाथ भगवान का ही आश्रय लेते हैं । तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ ने मोक्षपद प्राप्त किया है, इसलिये उन श्री शान्तिनाथ को मैं नमस्कार करता हूँ। श्री शान्तिनाथ के अतिरिक्त अन्य कोई भी मनुष्यों का शरण नहीं है, वस्तुतः मोक्ष भी श्री शान्तिनाथ की ही शरण है । इसलिये मैं अपना हृदय भी शान्तिनाथ के ही चरण-कमलों में अर्पित करता हूँ । हे शान्ति प्रदायक श्री शान्तिनाथ ! 444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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