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________________ एवं विभूतियों को सिद्ध करनेवाली श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करनी चाहिए ।' ऐसा चिन्तवन कर दिव्य आभरण एवं वस्त्रादिकों से विभूषित होकर वह अच्युतेन्द्र साथी देवों के साथ श्रीजिन-मन्दिर में गया । जिसका मन भक्ति से ओत-प्रोत हुआ है, ऐसे उस इन्द्र ने सर्वप्रथम श्री जिनप्रतिमा की महापूजा बड़ी भक्ति के साथ की ॥२३०॥ उसने स्वच्छ पवित्र जल से, दिव्य गन्ध के विलेपन से, स्वर्ग में उत्पन्न होनेवाले मोती आदि उत्तम अक्षतों से, चम्पा आदि उत्तम पुष्यों से, अमृत के बने हुए नैवेद्य से, रत्नों के दीपक के महाधूम से तथा कल्पवृक्षों के फल से तथा वाद्य-वादित्र के मनोहर गुंजार के द्वारा, अनेक प्रकार के स्तोत्रों से एवं मनोहर नृत्यों से अपने परिवार के सदस्यों के संग जिनेन्द्र भगवान की भव्य पूजा की । तदनन्तर | उस अच्युतेन्द्र ने बड़ी भक्तिपूर्वक स्वर्ग में उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकार के द्रव्यों से चैत्यवृक्षों पर विराजमान भगवान की प्रतिमाओं की पूजा की । इसके उपरान्त उस इन्द्र ने बड़ी भारी विभूति के साथ अपने पुण्य-कर्म से प्राप्त होनेवाले स्वर्ग के साम्राज्य की पट्ट बन्धपूर्वक स्वीकार किया । वह अच्युतेन्द्र धर्म के प्रभाव से मन में रमण के संकल्प करने मात्र से ही देवागंनाओं के साथ उपमा रहित दिव्य सुखों का अनुभव करता था । उसके नेत्रों की टिमकार नहीं लगती थी; इसलिये वह इन्द्र देवियों के समूह में बैठकर बिना टिमकार लगाए (अपलक) कभी नृत्य देखता था एवं कभी उनके गीत सुनता था । कभी वह अपनी देवांगनाओं के साथ जल क्रीड़ा किया करता था । बाईस हजार वर्ष पूर्ण हो जाने पर वह अमृतमय, उत्कृष्ट एवं तृप्तिदायक मानसिक आहार ग्रहण करता था । इसी प्रकार बाईस पक्ष या ग्यारह मास व्यतीत हो जाने पर थोड़ा-सा उच्छ्वास लेता था । वह सब प्रकार के रोगों से रहित था एवं सब देव उसकी पूजा करते थे ॥३४०॥ अपने अवधिज्ञान से वह अधोलोक की पाँचवीं भूमि (पंचम नरक) तक स्थूल-सूक्ष्म, चर-अचर सब मूर्तिमान पदार्थों के विषय में जानता था । उस इन्द्र की पाँचवीं भूमि तक की समस्त कार्यों को सिद्ध करनेवाली तथा शरीर से उत्पन्न होनेवाली मनोहर एवं सुन्दर विक्रिया ऋद्धि प्राप्त थी । उस इन्द्र को अनेक रूप धारण करनेवाले उत्तम एवं श्रेष्ठ अणिमा, महिमा आदि आठ गुण प्राप्त थे। वह धीर-वीर इन्द्र हार, कुण्डल, केयूर, शेखर आदि दिव्य आभूषणों से विभूषित था, दिव्य वस्त्र धारण किए हुए था एवं अनेक ऋद्धियों से सुशोभित था । इस प्रकार वह अच्युतेन्द्र देवों से भरे हुए सभा. भवन में सिंहासन पर विराजमान होकर सम्यग्दर्शन का कारणभूत धर्मोपदेश दिया करता था । वह इन्द्र 444442.*
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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