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मे उसे 'बालोकित भोजनपान' के अन्तर्गत समाविष्ट किया। सकलकीति ने अक्रम से इन सभी का उल्लेख कर दिया है-दिग्व्रत, अनर्थदण्डवत, रात्रिभोजनत्यागवत, भोगोपभोगपरिमाणवत, देशवत, सामयिक, प्रोषधोपवास और
और अतिथिसंविभाग । व्यतिक्रम हो जाने से उनकी मान्यता स्पष्ट नहीं हो पाती। अनर्थदण्ड के पाँच भेदों का भी यहाँ उल्लेख आया है । इस दृष्टि से छठा सर्ग महत्त्वपूर्ण है। इस पर उमास्वामी और वसुनन्दि का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। - इस प्रकार आचार्य सकलकीर्ति का यशोधरचरित्र अनेक दृष्टियों से एक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है जिसमें कवि ने लोकप्रिय यशोधरकथा के माध्यम से जैनधर्म के सिद्धान्तों को प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। - हमने परिशिष्ट में ३२ चित्रफलक दिये हैं जो लूणकरण पाण्डया मन्दिर, जयपुर की प्रति में उपलब्ध हैं । इस प्रति की अतिरिक्त सचित्र प्रतियां अन्यत्र भी प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए
१. श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र, महावीरजी । २. श्री पन्नालाल एलक सरस्वती भवन, व्यावर। ३. सवाई माधोपुर दीवान का जैन मंदिर।
४. बीसपन्थी मंदिर, नागौर। ... .. . . ५. श्री मोतीराम जैन दिल्ली के निजी संग्रह में।
चित्रकला के संदर्भ में अभी तक डब्ल्यु हटमैन, नाहर घोष, कुमार स्वामी कुदालकर, मेहता, नारमन ब्राउन, मोतीचन्द्ध, सरयू दोषी आदि अनेक विद्वानों ने शोध-खोज की है, पर अभी भी जैन चित्रकला के प्रामाणिक इतिहास का लिखा जाना शेष है । जैन चित्रकारों और आचार्यों ने कथाओं को अपनी कलाकारिता का साधन बनाया है। संभव है, उसे पाल-राजाओं से ग्रहण किया गया है। ताड़पत्र पर ११०० ई० से १४०० ई० तक तथा बाद में कागज पर चित्रकारी होती रही है । कल्पसूत्र का चित्रांकन कदाचित् प्राचीनतम माना जा सकता है। उसके बाद षट्खण्डागम, महाधवला आदि भी इस संदर्भ में दृष्टव्य हैं । नेमिनाथ चरित्र, सुबाहुकथा, अंगसूत्र, शलाकापुरुषचरित्र आदि को भी चित्रों में निरूपित किया गया है । इन चित्रों का मुख्य अभिधेय तीर्थकर, देवी-देवताओं और आचार्यों की जीवन गाथाओं का चित्रण रहा है । उन्हें स्पष्ट करने और प्रभावक बनाने के लिए मानवों और पशु-पक्षियों की भी आकृतियां बनायी गई। प्रारम्भिक चित्र में शारीरिक रचना में परम्परा के दर्शन होते हैं। रेखांकर भी क्षीण और पीलानीला रहा है । आंखों के लम्बे किनारे भी रहे हैं। उतरकाल में रेखांकन और