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रंगाधारिता में मोहकता और सूक्ष्मांकनता बढ़ती गई। पटचित्रों में भी यह मिलती है। बाद में कागज का उपयोग लगभग १६वीं शताब्दी में प्रारंभ हुमा। विशेषतायद्यपि इसके पूर्व की भी कुछ ग्रन्थावलियां मिलती हैं परवे विरल ही हैं। यहाँ लाल रंग का प्रयोग अधिक हुआ है। अपभ्रंश शैली के चित्र तो निश्चित ही ईरानी प्रभाव से ओत-प्रोत हैं । नुकीलापन और दीर्घाकारिता उसकी विशेषता रही है। लगभग १७वीं शताब्दी में मुगल शैली से जैन कला प्रभावित हो गयी
थी।
प्रस्तुत लूणकरण पाण्ड्या की सचित्र प्रति वि० सं० १७८८ (ई० १७३१) की है जिसे लूणकरण ने स्वयं प्राप्त की थी। पाण्डुलिपि का प्रथम चित्र उनसे ही सम्बद्ध है। प्रति में कुल पत्र संख्या ४४ है जिन्हें जीर्ण-शीर्ण स्थिति में होने के कारण मन्दिर के अधिकारियों ने कांच में जड़कर सुरक्षित कर दिया है । ये चित्र मुगल शैली से अधिक प्रभावित हैं। उनमें नीला, हरा, गहरा पीला, और लाल रंग का प्रयोग अधिक हुआ है । सवाईमाधोपुर और व्यावर की प्रतियों की चित्रकारिता कहीं अधिक अच्छी है। इग प्रतियों की चित्रकला का विशिष्ट अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।
यशोधरचरित्र के प्रस्तुत प्रकाशन में शिक्षामन्त्रालय का आर्थिक अनुदान मुख्य सहायक रहा है। तदर्थ हमारा संस्थान उसका अत्यन्त कृतज्ञ है । इस प्रति की तैयारी में मेरी पत्नी डॉ० पुष्पलता जैन का भी विविध सहयोग अविस्मरणीय रहेगा । डॉ० श्रीधर वर्णेकर के अनेक सुझाव तथा डॉ० गुलाब चन्द्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ का मुद्रण सहयोग एवं श्री प्रदीप जैन की मुद्रण व्यवस्था भी सधन्यवाद स्मरणीय है ।
-भागचन्द्र जैन भास्कर
'न्यू एक्सटेंशन एरिया सदर, नागपुर-४४०००१
दीपावली, २२-१०-१९८७