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है। चतुर्थ सर्ग इसी विषय पर आधारित है । इसका आशय है-धर्म हिंसात्मक कभी हो नहीं सकता। हिंसा कभी सुखोत्पादिका नहीं हो सकती। क्षत्रिय पर्म जीवों की रक्षा करना है, उनकी हिंसा करना नहीं है। अहिंसा के बिना ज्ञान मात्र बोझ है । यद्यपि हिंसा अहिंसा नहीं हो सकती। यदि हिंसा को धर्म कहा जायेगा तो हिंसा-कार्य करने वाले खटीक, चाण्डाल, व्याध, आदि सभी धर्मात्मा हो जाएंगे।
इसी प्रकार पंचम सर्ग में श्राद्धक्रिया को निरर्थक कहा गया है। परलोक में रहने वाले जीवन को निमित्त कर किया गया दानादिक उसके कोई काम नहीं आता । उसे अपने ही कर्म का फल स्वयं भोगना पड़ता है। जैसे जल के मंथन से नवनीत पैदा नहीं होता, स्वयं के मुख से अमृत पैदा नहीं होता, वैसे ही पुत्र द्वारा दिये जाने वाले दान से स्वर्गगत पितरों की भी तृप्ति नहीं होती।
छठे सर्ग में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है, और शरीर तथा आत्मा को पृथक्-पृथक् सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार चंपक की गध चंपक पुष्प से पृथक् है, उसके नष्ट होने पर भी तेल से उसकी गंध है उसी प्रकार शरीर और आत्मा पृथक्-पृथक् हैं । जैसे अरणि में अग्नि विद्यमान होने पर भी दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार देह के खण्ड-खण्ड करने पर भी आत्मा दिखता नहीं है। जैसे शंख बजाने पर उसकी आवाज तो सुनाई देती है पर शब्द उससे निकलता नहीं दिखाई देता। उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकलते हुए दिखाई नहीं देती। .. अष्टमूलगुण परम्परा का लम्बा इतिहास है। उसका प्रारम्भ स्वामी समन्तभद्र ने किया था । उन्होंने पांच व्रत और मद्य-मांस-मधु के त्याग को अष्टमूलगुण माना । कालान्तर में पांच व्रतों के स्थान पर पंचोदम्बर फलत्याग आ गया। सकलकीति ने ६.६० में इसी परम्परा को स्वीकार किया
· बारह व्रतों में गुणव्रत और शिक्षाओं के संदर्भ में मतभेद हैं। इनमें कोई रात्रिभोजनत्याग को सम्मिलित करता है और कोई सल्लेखना को पृथक रखता है। समन्तभद्र ने छठी प्रतिमा का नाम 'रात्रिभुक्तिविरति' रखा है जबकि 'दशवकालिक' में उसे छठा व्रत माना गया है । 'तत्त्वार्थसूत्र' के टीकाकारों
विशेष देखें-लेखक की पुस्तक 'जनदर्शन और संस्कृति का इतिहास' नागपूर विद्यापीठ प्रकाशन, पृ. २६४-६५