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________________ इसलिये हे राजन संसार का कारण निदान कभी भी नहीं करना चाहिए । पूर्व भव में जो चित्रलेखा की माता थी वह दैवयोग से मरकर भैरवानन्द नाम की योगी हुई। (१०७-११५) ____ अब हे राजन, मेरी पुरातन कथा सुनो। उज्जयिनी में यशोबन्धुर नाम का राजा था। वह मूर्ख राजा सम्यमिथ्यात्व के उदय से अन्यमतावलंबी और जैन साधुओं की पूजा, दान तथा वैप्यावृत्ति किया करता था । वह शुभ परिणामों से मरकर कलिंग देश में मारिदत्त नामक राजा के सुदत्त नाम का पुत्र हुआ। वह स्वभाव से विरागी था ।उज्जयिनी में यशोऽर्व राजा का गुणसिन्धु नामक विवेकी मंत्री अपना मन्त्रीपद नामदत्त को देकर शुभध्यान से मरा और श्रीपति सेठ के गोवर्धन नाम का पुत्र हुआ। वह यशोमति राजा का परम प्रिय था, सम्यग्दर्शन और व्रतों से विभूषित था। इस प्रकार मुनिराज से अपने पूर्वभव के जीवनवृत्त को सुनकर राजा सहर्ष तुरन्त संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया और आचार्य सुदत्त से बोला-हे प्रभो, कृपया संसार से भयभीत मुझे भवविनाशकारी जिनदीक्षा दें। तब राजा ने मुनिराज के उपदेशामृत से पैतीस राजाओं के साथ अतरंग और बहिरंग दोनों परिग्रहों को छोड़कर मुक्ति के लिए संयम ग्रहण कर लिया। - कौलिक भैरवानन्द ने भी मुनिराज के चरणकमलों को नमस्कार कर अपने दुराचार की बार-बार निंदाकर मुनिव्रत धारण करने की प्रार्थना की। तब योगिराज भैरवानन्द से बोले-हे कौलिक ! जैन शासन में अंग-विकल को दीक्षा नहीं दी जाती है। चूंकि तुम्हारी अंगुली खण्डित है इसलिच तुम शीघ्र ही सन्यास के साथ ही श्रावक-व्रतों को ग्रहण करो। अब संसार में तुम्हारा जीवन केवल बाईस दिन का ही है । कौलिकने इसे सहर्ष ही स्वीकार किया। (११६-१२८) अन्त समय अपने मन को दृढ़ बनाकर जिनेन्द्रदेव के चरणों में लगाकर चारों प्रकार की आराधना का आराधन कर और अपने शरीर का शोधनकर वह भैरवानन्द बाईस दिन में तप से मरकर शरीर का त्याग कर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। __महाऋद्धियों का धारी वह देव अपनी देवियों के साथ अनुपम अध्यावाध समस्त इंद्रियों के संतुष्ट करने में समर्थ दिव्य सुख को चिरकाल तक भोग रहा है। वहाँ पर अभयरुचि क्षुल्लक ने अपने गुरु को नमस्कर कर बाह्य और अन्तरंग परिग्रह छोड़कर मुनि पद की दीक्षा ले ली। अभयमती अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह त्याग कर शीघ्र ही आर्या हो गई और माता के समीप. कर्मों का नाश करने के लिए धर्मध्यान में तत्पर हुई।
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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