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________________ ५७ - जीवनपर्यंत शास्त्रोक्त चारों प्रकार का आहार त्याग कर शुभ ध्यान में आसक्त वह दोनों धर्मध्यान से स्थिर मन होकर बैठ गये । निर्मल सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा निर्दोष तप इस प्रकार चारों आराधनाओं की आराधना कर तथा जिनेन्द्र के चरणकमलों में धर्मध्यान, व आत्मभावना को भाकर, पक्ष माह तक अनशन अवमोदर्यादि बाह्य तपों द्वारा शरीर को दुर्बल बनाकर और सर्व परिग्रहों को जीतकर, निर्जन वन में प्राणों को त्याग कर, शुभ परिणामों से ईशान स्वर्ग में सम्यग्दर्शन की निर्मलता से स्त्री पर्याय को छेद कर के श्रेष्ठ देव हुए। (१२६-१३४)। वे दोनों अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव तथा तप के फल को जानकर पवित्र जैन शासन में अनुरक्त हो गये। तब वह दोनों देव अकृत्रिम चैत्यालयों में तथा सुमेरु पर्वत पर जाकर जिनेन्द्र देव की पूजा करते थे। ये दोनों क्रीड़ा पर्वतों पर, वनों में, नदी तथा समुद्र आदिक में देवियों के साथ क्रीड़ा कर सुख भोगते थे। कभी-कभी मधुर गानों तथा नेत्रों को आनन्द देने वाले नृत्यों द्वारा अनेक प्रकार के सुखों को भोगते थे । सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा अलंकारों से सुशोभित होते थे। वे तीन ज्ञान के धारक थे। . स्वर्ग में अनुपम अनेक प्रकार के सुखों का भोग करने पर बीता हुआ काल भी मालूम नहीं पड़ा । स्वर्ग में बहुत दिनों तक वे दोनों देव पुण्योदय से एक साथ . रहे (१३८-१४३)। _ इस बीच आसन्न भव्यों को धर्म का उपदेश देते हुए सुदत्ताचार्य अपने संघ के साथ विन्ध्यगिरि पर आये। ' :. उस पर्वत पर संन्यास की प्रतिज्ञा ग्रहण कर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर, चारों प्रकार की आराधना का आराधन कर, विधिपूर्वक प्राणों का त्याग कर स्वतप के प्रभाव से लान्तव स्वर्ग में महावैभवशाली देव हुए। '. महाऋद्धि धारी देवों से सेवित वह अपनी देवियों के साथ जिनेन्द्रदेव की पूजा करता हुआ सुखसागर में मग्न रहने लगा। यशोमति मुनि, मारिदत्त साधु, गोवर्धन यति तथा आर्या कुसुमावलि प्रभूत तप का पालन कर दुर्बल काय हो गये। ये चारों जन कठिन जैनचर्या का पालन कर तथा अन्त समय में सल्लेखना धारण कर संन्यास विधि से प्राणों का त्यागकर अपने-अपने माहात्म्य से स्वर्गों में महाऋद्धिक देव हुए । (१४२-१४८) इस प्रकार जैनधर्म के पालक मनुष्य धर्म के प्रभाव से मरकर देवगति
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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