SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૫૪ भीम नाम के दो पुत्र पैदा हुए। किसी समय जितशत्रु ने स्वयंवर विधि से राजकुमारी गंधर्वश्री का पाणिग्रहण बड़ी विभूति के साथ कर दिया । (७१-७३) एक दिन गंधर्व राजा शिकार खेलने के लिए वन में गया । वन में एक मृग को लक्ष्य बनाकर राजा ने बाण छोड़ा। उसी समय एक हरिणी पति के प्रेम से हरिण के बीच में आगे आ गई । भय से पीडित वह मृग दूर भाग गया । राजा गंधर्व ने बाण से मृगी को मार डाला । - सेवकों ने मृत हिरणी को उठाया जिसे देख कर हिरण वापस आ गया और व्याकुल होकर दीन-दृष्टि से आसपास चक्कर काटने लगा । हरिणी के वियोग से व्याकुल उस हरिण, को देखकर तत्क्षण ही संसार शरीर और भागों से . राजा को परम वैराग्य पैदा हो गया और दयाद्र होकर सोचने लगा - कार्यअकार्य को न विचारने वाले, मूर्ख, कामी मुझे धिक्कार है । निर्बलों को पीड़ा. देने वाले, निन्दनीय, पापी तथा प्राणियों का घातक मैं अत्यन्त अविवेकी हूं । इस प्रकार स्वयं की आलोचना कर जिनदीक्षा धारण कर ली और कठोर तप करने लगा। (७४-७८) । पुण्यकर्म के उदय से गंधर्वसेन ने पिता का सारा समृद्ध राज्य प्राप्त किया । एक दिन गंधर्वसेन भक्तिवश अपने पिता मुनिवर की बन्दना करने गया । पुत्र की विभूति देखकर उस मूढ़ सन्यासी ने दुःख का कारणभूत ऐसा निदान बांधा कि संसार की ऐसी विभूति मुझे प्राप्त हो । जैसे कोई मूर्ख पुरुष माणिक्य के बदले काँच लेता है तथा हाथी के बदले गधा लेता है. उसी प्रकार निदान करने वाले उस साधु ने तप के बदले लक्ष्मी को ग्रहण करने की इच्छा की । फलतः वह मरकर उज्जयिनी में यशोबन्धुर राजा का. पूर्व निदान करने से लक्ष्मी विभूषित यशोऽधं नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । (७९-८४) विन्sयश्री भी परिव्राजक का वेष धारण करके मास- दो मास के प्रोषधः कर तीव्र कायक्लेश को सहकर - मरकर वहां से दैवयोग से अजितांगदराजा की चन्द्रमती नामकी पुत्री हुई । पूर्व मिथ्यात्व की वासना से युक्त चन्द्रमती को राजा यशोऽर्ध ने विवाह लिया । मन्त्रीपुत्र जितशत्रु ने जिस राजकन्या गंधर्वश्री के साथ विवाह किया था वह दुःशीला भीमसेन देवर के साथ कामासक्त हो गयी । देवर और भाभी के इस दुराचार को किसी ने जितशत्रु से कह दिया । उसी समय जितशत्रु ने नारी की निन्दाकर और भोग और उपभोग की वस्तुओं से वैराग्य धारणकर उस पापिनी स्त्री का तथा राज्यलक्ष्मी का त्याग कर, उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया। विवेकी. जितशत्रु कर्मों का क्षय करने के लिए शीघ्र ही विश्व सुखों के सागररूफ
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy