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चाहिए। (१८-२४)
झूलक दयाद्र होकर अपने चरणों में पतित तथा भय से कंपित देवी से . बोले-व्यर्थ का प्रलाप मत करो। इस संसार में धर्म के अतिरिक्त जीवों का और कोई दूसरा प्रभावक रक्षक नहीं है। अपने कर्म से यह जीव अकेला ही पैदा होता है । अकेला ही मरता है, चतुर्गति रूप अनेक भवों में, चिरकाल तक भ्रमण करता है । अकेला ही सुखी, दुःखी, धनी, निर्धन तथा अनेकों वेषों को धारण करता है, और रोगी-निरोगी अकेला ही होता है। इस संसार में उसका. कोई भी सहायक नहीं है। इसलिए हे देवी, जीवदया का पालन करते हुए पाप तथा दुःख रूपी वन को दावानल रूप जैनधर्म का पालन करो। देवी ने तब संसरण को दूर करने वाली जिन दीक्षा देने का निवेदन किया। उत्तर में क्षुल्लक ने कहा-आगम में नारक, निर्दम्य और देवों को दीक्षा का विधान नहीं है। " सप्तव्यसनी, निर्दयी, पापचारी, समारम्भी, कृष्ण लेश्या के धारक तीव्र कषायी जीव नरक गति में जाते हैं। देव, शास्त्र, गुरू के निन्दक मिथ्यात्वी, अव्रती, मायाचारी, आर्तध्यानी, प्रववंचक नील लेश्या वाले जीव, तिर्यञ्च गति में जन्म लेते है। इनकी दीक्षा-क्रिया नहीं होती है । (२६-३५) . .
इन्द्रिय विजयी, निर्मल, व्रत और शीलवतों से विभूषित, ज्ञानी, पापों से भयभीत, तप-क्लेश को सहने वाले जीव यथायोग्य स्वर्गों में जाते हैं। जैन धर्म के यथार्थ पालक, निर्लोभी, निर्मल चित्त से युक्त, देव, गुरु और शास्त्रों की विनय करने वाले दश धर्म से विभूषित, सद्गुणों के धारक तथा समाधि-मरण करने वाले, सभ्यग्दर्शन से विशुद्ध जीव स्वर्गों में जाते हैं । सुख-सागर में निरन्तर निमग्न तथा विषयभोगों में आसक्त इन देवों के भी व्रत नहीं होता है। आर्जव आदि गुणों से सहित, अल्पारम्भ तथा परिग्रह के धारक जीव, ऊंचे कुलों में उत्पन्न होकर मनुष्य जन्म ग्रहण करते हैं। रागी, नीच जाति वाले, हीनांग वाले, कषायी, मूर्ख और कुटिल चित्त वाले जीवों की दीक्षा-क्रिया नहीं होती है । संसार से भयभीत मोक्ष-सुख के इच्छुक पुरुषों को जैन दीक्षा दी जाती है, अन्य को नहीं। इसलिए हे देवि ! निःशंक आदि गुणों से युक्त, मुक्ति के प्रधान कारण इस सम्यक्त्व को मन, वचन, काय से धारण करो। जिनेन्द्र को छोड़कर अन्य देव नहीं हैं। दया के बिना दूसरा धर्म नहीं है। तथा निर्ग्रन्थ गुरु के सिवाय अन्य गुरु नहीं है, यही विचार सम्यक्त्व का कारण है । (३६-४८) ___ काललब्धि के आने से उस देवी ने भी क्षुल्लक के उपदेशामृत का पान कर, नमस्कार कर, शंका आदिक पच्चीस दोषों से रहित, निर्मल, सम्यग्दर्शन को स्वीकार किया । अर्हद् धर्म की प्राप्ति से आनंदित होकर देवी ने क्षुल्लक से कहा-हे व्रतशालिन, हम पर दया कर, सब भोगों को देने वाली प्रसिद्ध