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________________ अष्टम सर्ग मैं अभयरुचि अपनी समस्त राज्यलक्ष्मी को अपने अनुज यशोधन को विधिपूर्वक सौंपकर सुदत्ताचार्य के चरणों में अपनी इस छोटी बहिन के साथ दीक्षा के लिए गया। मुनिराज बोले अभी तुम दोनों अत्यन्त सुकुमार बालक हो, अतः दुधंरु दीक्षा योग्य नहीं हो । अभी क्षुल्लक दीक्षा धारण करो। फलतः हम दोनों ने गुरु की आज्ञा को अनुल्लंध्य मानकर विधिपूर्वक कर्मरंज को धोने के लिए, मन-वचन कार्य की शुद्धिपूर्वक इस क्षुल्लक पद की दीक्षा धारण कर ली। सम्यक्त्व, बारह व्रत, सामायिक व्रत, षोषधोपवास, सचित्त-त्याग, रात्रिभोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ-त्याग, परिग्रह-त्याग, अनुमति-त्याग और उदिष्टाहार त्याग श्रेष्ठ श्रावकों की ये ग्यारह प्रतिमाएं हम दोनों ने उस समय स्वीकार कर लीं। उस समय हमारी माताएं गंधारिणी नामक गणिनी के साथ साधनापूर्वक शास्त्र-पठन करती थीं। जो हितकारी योगी रागवर्धक कथा के व्याख्यान में मूक सदृश थे, कथाओं के माध्यम से आगमों की व्याख्या करते थे, कुशास्त्र सुनने में बधिर थे, ज्ञान-नेत्रवान थे, तीर्थयात्री थे, कठोर ब्रह्मचारी थे,. दयालु थे, जिनवाणी के पालन में दक्ष थे, कामशत्रु विजयी थे, कर्मक्षय करने में क्रूर थे, जिनका चित्त जाज्वल्यमान था, परिषह-विजयी थे, कर्मबंध से सांसारिक सुखों के लोभ से रहित थे, त्रैलोक्य के अविनाशी राज्य पद पाने की तीव्र लालसा से युक्त थे, इंद्रिय सुखों की कामना से रहित थे, तथा अनन्त सुख की प्राप्ति के इच्छुक थे, ऐसे गुणों के धारक साधुओं के साथ भव्य जनों को मोक्ष का उपदेश देते हुए, जैन धर्म के प्रभावक, धर्म, संवेग, ज्ञान तथा ध्यान में परायण, महासूरि सुदत्त नामक आचार्य, आज एक प्रहर बीतने पर : आपके नगर के पास पधारे। (११-१७) हे राजन् ! जब अपनी इच्छा से चर्या के लिए हम दोनों आपके नगर में प्रवेश कर रहे थे कि इस नगर में राजमार्ग से आपके सेवक हम दोनों को पकड़कर आपके पास ले आए। यहां आपने जो पूछा, मैंने जो अनुभव किया, सुना और देखा वह सब आपसे कह दिया। ब्रह्मचारी के वचन सुनकर देवी का मन विरक्त हो गया। व्रत ग्रहण किए बिना ही सर्व प्राणियों की हिंसा सदा के लिए शीघ्र ही देवी ने सर्वथा छोड़ दी। प्रसन्न उस देवी ने उस वन को सर्व ऋतुओं के फल, फूल और पत्रों से सुशोभित कर दिया और अस्थि-चर्म से रहित कर दिया। उसने अपना भयंकर रूप छोड़कर विक्रिय ऋद्धि से वस्त्राभूषणों से सुसज्जित सुन्दर और सौम्य रूप बना लिया । अक्षतादि द्रव्यों से दोनों को अर्घ्य चढ़ाया। फिर वह निष्पात्मा चरणों में गिरकर विनय-भाव से बोलीहे नाथ ! मुझे इस संसार-सागर से बचाओ। कृपया बताएं-मुझे क्या करना
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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