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________________ वन में पहुँचा। उस समय राजकीय चिह्नों को छोड़कर राजा यशोमति मनिराज के पास बैठे हुए थे । तब मैंने (अभयरुचि ने) उनसे निवेदन किया-जैसे लोक में चन्द्र, सूर्य, विवेक और शील के बिना क्रमशः रात्रि, कमलिनी, विद्वान और नारी शोभा नहीं पाते, उसी तरह हे नाथ, आपके बिना न सारी प्रजा शोभा पा सकती है और न आपकी पत्नियाँ अदीन हो सकती हैं । इसलिए अभी आप दीक्षा धारण न करें। उत्तर में राजा ने दृढ़तापूर्वक तप करने की अपनी प्रतिज्ञा दुहरायी और कहा कि मुनिराज द्वारा कथित पूर्वभवों के वृतान्त ने ही वस्तुतः हमारे जीवन. को एक नया मोड़ दे दिया है । उसी को सुनकर हम दोनों भाई-बहिन मूछित हो गये । सचेत होने पर माता-पिता और परिजनों ने मूर्छा का कारण पूछा । तब मैंने अपने पूर्वभवों की कथा को विस्तार से कह सुनाया । उसे सुनकर यशोमति और भी दृढ़ निश्चय के साथ संविग्न हो गया और फिर अपने मित्र से. बोलायह अभयमती कन्या अहिच्छत्र कुमार को सौंप दो और शीघ्र ही युवराज अभयरुचि का राज्याभिषेक कर दो ताकि कर्मक्षयकारी जिनदीक्षा को और अधिक सक्षमतापूर्वक धारण कर सकूँ। पिताश्री के वचन सुनकर मैं विरक्त हो गया और उनसे निवेदन किया कि अब मैं भोगकथा सुमने का इच्छुक नहीं हूँ बल्कि बहिन अभयमती के साथ मुक्ति प्राप्ति के लिए निर्दोष तप करूँगा। (८९-१०८) संसार के भोग नरक के मार्ग हैं । सर्यों के समान दुःखदायी हैं, चंचल हैं। धर्म-विनाशीक हैं और दुर्गतियों में भ्रमण कराने वाले हैं । इन भोगों का उपभोग मैं कैसे कर सकता हूँ ! यदि कुए में पतन होना है तो हाथ में दीपक लेने से क्या लाभ ? शास्त्रज्ञ सेठ ने उत्तर दिया-दीक्षा ग्रहण करने वाले राजा लोग ज्येष्ठ पुत्र को राज्यपद सौंप देते हैं, यह सनातन मार्ग है। राजा के अभाव में मन्त्री, सेनापति आदिकों का अभाव हो जाता है । मन्त्री और सेनापति आदि रक्षकों के अभाव होने से प्रजा का अभाव हो जाता है, प्रजा तथा गृहस्थों के अभाव से योगि जनों का होना कठिन है । गुरुओं के अभाव होने से धर्म का अभाव हो जाता है। और धर्म के अभाव में प्राणियों को दुःख होता है । संसार की इस व्यवस्था को बनाने के लिए ही विवेकशील पुरुषों ने क्षात्रधर्म का विधान किया है। इसलिए हे विवेकशील पुत्र, कुछ दिनों के लिए पिता के इस राज्यपद को स्वीकार करो और बाद में यथायोग्य विचार कर लेना । तब मैंने राज्याभिषिक्त होना स्वीकार कर लिया । साथ ही निर्दोष तप करने का भी दृढ़ निश्चय कर लिया । पिताश्री यशोमति ने सभी के समक्ष मेरा राज्याभिषेक किया और तुरन्त ही राज्यलक्ष्मी को तृणवत् छोड़कर जिनदीक्षा धारण कर ली। (१०६-११८)।
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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