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डाला । वे दोनों मरकर छह जन्म तक तिर्यग्योनि में उत्पन्न होकर घोर दुःखों को "भोगते रहे हैं । पहले जन्म में यशोधर मोर हुआ और चन्द्रमती ने श्वान की पर्याय ग्रहण की। दूसरे जन्म में यशोधर सेलु हुआ और चन्द्रमती कृष्ण सर्प । तीसरे जन्म में यशोधर रोहित मत्स्य और चन्द्रमती शिशुमार । चौथे जन्म में वे क्रमशः बकराबकरी हुए । पाँचवें में यशोधर पुनः बकरा और चन्द्रमती भैंसा हुई । तथा छठे जन्म में वे क्रमश मुर्गा और मुर्गी हुए । इन पर्यायों में तुमने उन्हें भरपूर कष्ट दिया और उन्हें मारकर उनका माँस खाया और खिलाया, पितरों को स्वर्ग में तृप्त करने के उद्देश्य से । अन्त में मुर्गा-मुर्गी श्रावकधर्म का पालन करने के कारण मरकर आपकी कुसुमावली रानी के गर्भ से क्रमशः अभयरुचि और अभयमती नामक पुत्र पुत्री युगल हुए जो कालान्तर में क्षुल्लक क्षुल्लिका बने ।
मुनि से अपने पूर्वजों का जीवनवृत्त सुनकर राजा अत्यन्त भयभीत हो गया, और अपने मित्र के मुखकमल को देखते हुए पूर्वोपार्जित पाप की चिन्ता करता हुआ विलाप करने लगा ।
यदि चण्डिकादेवी की पूजा करने में आटे के मुर्गों के मारने पर मेरे पितृजनों ने पाप से इस प्रकार कुयोनि पाकर दुःख भोगे, तब तो मित्र ! मैं क्या होऊँगा ? मुझ पापी ने स्वयं अपने हाथों से असंख्य जलचर, थलचर और नभचर जीवों का वध किया है । इस प्रकार विलाप एवं पश्चात्ताप करते हुए यशोमति राजा से कल्याणमित्र ने कहा – मित्र ! क्षुद्र जन्तु की तरह व्यर्थ ही विलाप क्यों करते हो ! . सभी जीवों के हितकारक, जिनधर्म छोड़कर, पूर्वोपार्जित कर्मों से रक्षा करने के लिए अन्य कोई भी धर्म समर्थ नहीं है । तब राजा ने कहा - मित्र ! मुनिराज से . ऐसा आप निवेदन करें, जिससे वह शीघ्र ही मुझे पापकर्मों का क्षय करने के लिए विस्मयकारी तप (दीक्षाव्रत ) दे दें ।
सेठ ने राजा यशोमति को दीक्षा के लिए तत्पर जानकर कहा - हे राजन् ! दीक्षा लेने में जल्दी न करो. पहले अपने पुत्र को राजतिलक करो । पीछे हम और तुम दोनों दीक्षा लेकर तप करने वन चलेंगे। राजा ने उत्तर दिया – मित्र, गृहवास से विरक्त होने वाले पुरुष को पुत्र तथा राज्य की चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है ! आज ही पुत्र को सारा राज्य सौंप दिया जाये और जिनदीक्षा स्वीकार कर ली जाए । ( ८२-८८)
यह जानकर सभी रानियाँ आभूषण उतारकर विलाप करती हुई वन में आयीं और उसी समय मैं भी बहिन के साथ सामन्तगुण और मन्त्रिमण्डल लेकर