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________________ ४६ डाला । वे दोनों मरकर छह जन्म तक तिर्यग्योनि में उत्पन्न होकर घोर दुःखों को "भोगते रहे हैं । पहले जन्म में यशोधर मोर हुआ और चन्द्रमती ने श्वान की पर्याय ग्रहण की। दूसरे जन्म में यशोधर सेलु हुआ और चन्द्रमती कृष्ण सर्प । तीसरे जन्म में यशोधर रोहित मत्स्य और चन्द्रमती शिशुमार । चौथे जन्म में वे क्रमशः बकराबकरी हुए । पाँचवें में यशोधर पुनः बकरा और चन्द्रमती भैंसा हुई । तथा छठे जन्म में वे क्रमश मुर्गा और मुर्गी हुए । इन पर्यायों में तुमने उन्हें भरपूर कष्ट दिया और उन्हें मारकर उनका माँस खाया और खिलाया, पितरों को स्वर्ग में तृप्त करने के उद्देश्य से । अन्त में मुर्गा-मुर्गी श्रावकधर्म का पालन करने के कारण मरकर आपकी कुसुमावली रानी के गर्भ से क्रमशः अभयरुचि और अभयमती नामक पुत्र पुत्री युगल हुए जो कालान्तर में क्षुल्लक क्षुल्लिका बने । मुनि से अपने पूर्वजों का जीवनवृत्त सुनकर राजा अत्यन्त भयभीत हो गया, और अपने मित्र के मुखकमल को देखते हुए पूर्वोपार्जित पाप की चिन्ता करता हुआ विलाप करने लगा । यदि चण्डिकादेवी की पूजा करने में आटे के मुर्गों के मारने पर मेरे पितृजनों ने पाप से इस प्रकार कुयोनि पाकर दुःख भोगे, तब तो मित्र ! मैं क्या होऊँगा ? मुझ पापी ने स्वयं अपने हाथों से असंख्य जलचर, थलचर और नभचर जीवों का वध किया है । इस प्रकार विलाप एवं पश्चात्ताप करते हुए यशोमति राजा से कल्याणमित्र ने कहा – मित्र ! क्षुद्र जन्तु की तरह व्यर्थ ही विलाप क्यों करते हो ! . सभी जीवों के हितकारक, जिनधर्म छोड़कर, पूर्वोपार्जित कर्मों से रक्षा करने के लिए अन्य कोई भी धर्म समर्थ नहीं है । तब राजा ने कहा - मित्र ! मुनिराज से . ऐसा आप निवेदन करें, जिससे वह शीघ्र ही मुझे पापकर्मों का क्षय करने के लिए विस्मयकारी तप (दीक्षाव्रत ) दे दें । सेठ ने राजा यशोमति को दीक्षा के लिए तत्पर जानकर कहा - हे राजन् ! दीक्षा लेने में जल्दी न करो. पहले अपने पुत्र को राजतिलक करो । पीछे हम और तुम दोनों दीक्षा लेकर तप करने वन चलेंगे। राजा ने उत्तर दिया – मित्र, गृहवास से विरक्त होने वाले पुरुष को पुत्र तथा राज्य की चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है ! आज ही पुत्र को सारा राज्य सौंप दिया जाये और जिनदीक्षा स्वीकार कर ली जाए । ( ८२-८८) यह जानकर सभी रानियाँ आभूषण उतारकर विलाप करती हुई वन में आयीं और उसी समय मैं भी बहिन के साथ सामन्तगुण और मन्त्रिमण्डल लेकर
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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