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________________ ४६ लिया ! आप महाज्ञानी और तपस्वी हैं । कृपया मेरे इस निकृष्ट अपराध को क्षमाकर कृतार्थ करें और प्रणाम स्वीकार करें। मुनिराज ने सरल मन से उसे क्षमादान कर मुनिधर्म का व्याख्यान किया। उन्होंने कहा-यह मुनिधर्म अहिंसामय है तथा उत्तम क्षमा और मार्दवादि दश धर्मों से विभूषित है । सुखदुख और निन्दा-प्रशंसा में समबुद्धि होने से यह वृद्धिंगत होता है । यदि कोई पापी अज्ञानी जीव क्रोध से जैन साधु को गाली या अशिष्ट वचन बोलता है, लाठी आदिक से पीटता है, खींचता है, या शस्त्रों से घात करता है तो मुक्तिसाधक आत्महित के इच्छुक मुनिजन कर्मों की निर्जरा के लिए उन सभी उपसर्गों को समता भाव से सह लेते हैं। तथा प्राणों का अन्तकाल उपस्थित होने पर भी कभी भी क्रोध नहीं करते हैं । (५४.६५) यह सुनकर राजा सहर्ष अपने मित्र से बोला-तपस्तेज, कषायाभाव, अपरिग्रह, अमूढ़ता, ज्ञानत्व, समता, बलशालिता, निर्ममत्व आदि गुण इन दिगम्बर साधुओं में असाधारण रूप से विद्यमान रहते हैं। उनकी ज्ञानगरिमा एवं सर्वज्ञता देखकर मेरे मन में यह जिज्ञासा हो रही है कि हमारे पूज्य मातापिता और पितामह-पितामही मरकर कहाँ गये ? मुनिराज ने उत्तर में कहा राजन् ! आपके पितामह क्रीत्यौध जिनदीक्षा धारणकर सल्लेखनापूर्वक मरकर ब्रह्मोत्तर विमान में महा ऋद्धिधारी देव हुए जहाँ वह देव कभी क्रीडाशैल पर, कभी भवनों में और कभी वनों में अपनी देवियों के साथ क्रीड़ा करता है। कभी मधुर ध्वनि वाला गान सुनता है, कभी देवियों के मनोहर नृत्य को देखता है, और कभी जिनेन्द्र के कल्याणकों में, कभी अकृत्रिम चैत्यालयों में जिनदेव की पूजा करता है । (६६-७२) और जो आपकी माता अमृतदेवी थी, उसने विष खिलाकर अपने पति को मार डाला था अतः शीलभंग के कारण उत्पन्न पाप के उदय से भयंकर महा कुष्ठ की तीव्र वेदना को भोगकर, रौद्र ध्यान से मरकर तमःप्रभा नाम के नरक में गयी है । वह उस नरक में छेदन भेदन, शूली पर चढ़ाना, महाताडन, मारण, अग्नि में डालना, वैतरणी नदी में डुबोना आदि महान् तीव्र दुःखों को भोग रही . राजा यशोधर आपके पिता थे और चण्डिकादेवी की भक्ति करने वाली उनकी चन्द्रमती माता थी । उन दोनों मूों ने अपने ही हाथ से चण्डिका देवी के आगे आटे का मुर्गा बनाकर पाप की शान्ति के लिए तथा विघ्नों का शमन करने के लिए, मुर्गे की बलि चढ़ाई। उस महा पापकर्म के उदय से तुम्हारी माता ने विष देकर दोनों को मार
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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