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-कुशल, प्रतापशाली तथा महान् कीर्तिशाली था । एक दिन तरुणावस्था में राज्य करने वाले इस सुदत्त राजा के सामने कोतवाल चुराई हुई चीजों के साथ चोर को पकड़ लाया और बोला - हे महाराज ! इस चोर ने घर के मालिक को जान से मारकर इन चीजों को चुराया है। राजा ने ब्राह्मण विद्वानों से पूछा - इसे किस प्रकार दण्डित किया जाये ? उन्होंने कहा- चौराहे पर खड़ा कर इसके हाथ, - नाक, कान काट लिये जायें और आँखें निकाल ली जावें । राजा के पुनः पूछने पर विप्रवर बोले- इसको दण्ड देने और न देने का पाप-पुण्य भी आपको ही लगेगा। यह सुनकर राजा भोगों से विरक्त हो गया और सोचने लगा- - नृपगण -संसार में ऐसा पापार्जन कर राज्य का उपभोग करते हैं । निश्चय से इस राज्य से मुझे नरक की प्राप्ति होगी । इसलिए इस राज्य को आज से ही हमारा दूर से नमस्कार । अगर यह राज्य कल्याणकारी होता तो तीर्थंकर देव, चक्रवर्ती आदिक महापुरुष इस राज्य का क्यों त्याग करते ? इस प्रकार चिरकाल तक विचार कर, इस सुदत्त राजा ने राज्य छोड़कर उसी समय तप धारण कर लिया । (३८-४७)
यह वृतान्त सुनकर यशोमति अपने मित्र से बोला - मित्र, यदि यह साधु राजा है, तो आओ हम इस मुनिराज के चरणकमलों को नमस्कार करने चलें । इस समय उन्हें प्रणाम करने की मेरी तीव्र इच्छा हो रही है। फलतः दोनों मुनि - वर के दर्शन करने पहुँचे । वे मुनिराज चन्द्र के समान थे, दीप्ति से सूर्य के समान थे, समुद्र की तरह गम्भीर थे, सुमेरु पर्वत के शिखर के समान स्थिर थे, वायु की तरह नि:संग थे और रत्नत्रय से विभूषित थे । उन मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा देकर, चरणों में नमस्कार कर, राजा और सेठ, दोनों बैठ गये । उसी समय मुनिराज अपनी समाधि को पूर्ण कर शिलातल पर बैठ गये, और दोनों भव्यों को धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया ।
यशोमति ने तीव्र तप से दैदीप्यमान उन मुनिवर को देखा । काललब्धि के निकट आ जाने पर उस राजा को भोगों से वैराग्य प्राप्त हो गया । ( ४८-५३)
राजा सोचने लगा - इस प्रकार के असाधारण गुणों से परिपूर्ण, मुक्ति के साधक परम पवित्र मुनि को मारने का मैंने संकल्प किया। इस जघन्यतम पाप का प्रायश्चित अपना शिरश्छेद ही हो सकता है । राजा को मृत्यु के लिए तत्पर जानकर मुनिराज बोले- हे राजन् ! आपने जो मन में मृत्युवरण करने का विचार किया है वह ठीक नहीं है । हे भव्य ! पूर्व संचित पाप आत्मनिन्दा और गर्हा से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। बुरे विचारों से, शिरच्छेदन करने से कभी पूर्वोपार्जित कर्म नष्ट नहीं होते हैं । राजा ने साश्चर्य कहा- आपने मेरा अभिप्राय जान