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________________ Y पूछे और सस्नेह पान के बीड़े के साथ मधुर वार्तालापपूर्वक सेठ कल्याणमित्र का सम्मान किया। कल्याणमित्र सेठ भी राजा यशोमति से बोला- आओ ! यहाँ से हम दोनों मुनिराज की वन्दना को चलें । सेठ के वचन सुनकर राजा यशोमति क्रोध से बोला- आज मेरा शिकार पर आना व्यर्थ हो गया । इसलिए हे मित्र, दण्डनीय इस साधु को काज अवश्य ही . दण्ड मिलना चाहिए । AB 'जो कभी स्नान नहीं करता तथा जो अपवित्र, नग्न, अपशकुन स्वरूप है, राजा महाराजों से पूजित मुझसे उस साधु की वन्दना करवाना चाहते हो ? ( ८-१३) सेठ ने मन में विचार किया - जिनके दर्शन से जगत् का कल्याण एवं मंगल होता है उस जगत् के वन्दनीय साधु के दर्शन को यह पापी अपशकुन कहता है ! सन्मार्ग की निंदा होने के समय मिथ्यामार्ग का पोषण और साधुजनों को पीड़ा होते समय उपेक्षावृत्ति धारण नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे पाप का बन्ध होता है । जो विवेकी पाप करनेवाले, मित्र, पुत्र, परिजन तथा बान्धवों को अपनी शक्ति के अनुसार पापों से नहीं हटाता है वह उन पापियों के साथ ही दुर्गति प्राप्त करता है । जैन आगम के ज्ञाता कल्याणमित्र सेठ ने विचार कर राजा से कहा, हे राजन् ! आप यह जो कहते हो कि स्नान न करने से जैन साधु अशुद्ध और अपवित्र होते हैं यह आपका वचन असत्य और निन्दनीय है । ब्रह्मचर्य, तप, मन्त्र और जप आदिक के भेद से शुद्धि और स्नान कई प्रकार के होते हैं । इसलिए ब्रह्मचर्य तथा तप से युक्त होने के कारण मुनिराज शुद्ध हैं ही । ( १४-१८) जैसे शराब के घड़े नदी के नीर से धोने पर भी कभी शुद्ध नहीं होते हैं उसी प्रकार संसारी प्राणी मिथ्यात्व के कारण स्नान करने पर भी अन्तरंग से पवित्र नहीं हो पाते। जैसे घी के घड़े पानी से धोने के बिना भी हमेशा शुद्ध माने जाते हैं उसी भाँति वे यतिवर बहिरंग मल से युक्त होने पर भी अन्तरंग स सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त होते हैं, इसलिए अत्यन्त पवित्र होते हैं । माता-पिता के रज और वीर्य से उत्पन्न, सात धातुओं से युक्त और मल-मूत्र से भरे हुए इस शरीर को कौन विवेकशील पंडित पवित्र कहेगा ? हे राजन् ! तप से शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रतधारी तथा दया के आकर मुनिराज सदा ही पवित्र होते हैं कामी और दुर्जन कभी भी पवित्र नहीं होते हैं । आपके मत में यदि स्नान से ही शुद्धि होती है तो सभी जलचर तथा धीवर
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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