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________________ अशुचि पदार्थों के भण्डार, विविध जीवों की जाति से संकुल, निन्दनीय और कीभत्स मर्भ में नवमास से अधिक रहकर शुभ लग्न और शुभ दिन में उस अशुचि द्वार से बड़े कष्ट के साथ हम बाहर आये और मनुष्य जन्म पाया। तब हमारे पिता ने और जाति के बन्धुओं ने मिलकर मेरा नाम माता के दोहद के कारण अभयरुचि और मेरी इस बहिन का नाम अभयमती रखा। बाल्यावस्था व्यतीत हो जाने पर पढ़ने को गुरु के पास गये, प्रज्ञा और प्रतिभा के बल से थोड़े ही काल में हम दोनों ने शास्त्रविद्या, राजनीति, अर्थशास्त्र और अध्यात्म विद्याएँ पढ़ ली। अब महाराज यशोमति इस अभयमती कन्या का प्राणिग्रहण अहिच्छत्र के राजकुमार से करेंगे और मुझे युवराज पद प्रदान करेंगे। (१२२-१३३) __ इस प्रकार पूर्वकृत पापकर्म के उदय से अनेक भवों में अनेक जाति के दुःखों को भोगकर, निर्मल गहस्थ धर्म का पालन करने से हे राजन् ! कुमार अवस्था में होने वाले सुखरूपी समुद्र में हम दोनों आनन्द से डबकी लगाने लगे। सप्तम सर्ग __ एक दिन राजा यशोमति मेरे राज्याभिषेक के उत्सव में बनाये जाने वाले भोजन के निमित्त शिकार करने के लिए पांच सौ कुत्तों को साथ लेकर वन में गया। उस समय उसने नगर के बाह्य उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे पद्मासन में स्थित, दुर्धर तपों के पालने से अत्यन्त दुर्बल-शरीर, ध्यान मुद्रा में विराजमान मुनियों में श्रेष्ठ सुदत्त मुनि को देखा । मुनि को देखकर राजा यशोमति क्रोधाग्नि से प्रदीप्त हो गया और बोला-इस मुनि के दर्शन से मेरी मृगया निष्फल हो गयी है। इस प्रकार कहकर उस पापी शिकारी राजा ने मुनि को मारने के लिए उन पर अपने कुत्तों को छोड़ दिया। जैसे मन्त्र की शक्ति के प्रभाव से भयंकर जहरीले काले नाग निर्विष हो जाते हैं. उसी प्रकार उस समय क्रूर, कुटिलमुख और कुटिल दाढ़ों वाले वे कुत्ते भी मुनि के प्रभाव से हतप्रभ हो गये । कुत्तों की वह सेना मुनिराज के पास जाकर उनकी की प्रदक्षिणा देकर शीघ्र ही नतसस्तक होकर, व्रत पाने की इच्छा से मुनिराज के चरणों के निकट बैठ गयी । दैवयोग से इसी अवसर पर यशोमति का परम प्रिय मित्र कल्याणमित्र यतिवर के दर्शनार्थ आया। धनी, व्यवहारकुशल, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और व्रतों से विभूषित कल्याणमित्र सेठ ने अपूर्व वस्तु के साथ यशोमति राजा को देखा। राजा यशोमति ने प्रेमालिंगन कर स्वास्थ्य और कुटुम्ब के सन्दर्भ में कुशल प्रश्न
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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