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________________ में चक्रवर्तिस्व आदि श्रेष्ठ पदों को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करते हैं । (९८-१०६) हे भव्य ! पांच प्रकार के मिथ्यात्व को छोड़कर आज तू शुद्ध परिणामों से कर्म बन्ध के नाश के लिए, हिंसा आदिक पाँचों पापों से रहित इस गृहस्थधर्म का पालन करो। ___चण्डकर्मा कोतवाल ने मुनिराज के उपदेश को सहर्ष स्वीकार किया और कुल परम्परागत हिंसक कर्म को छोड़ने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। मुनिराज ने पुन: समझाते हुए कहा-विवेकशील पुरुष कुलपरम्परा से चले आये अशुभ दारिद्रय रोग को छोड़ देते हैं, और धन और आरोग्य को प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार तुझे भी अपने सब पापबन्ध के कारण रूप परम्परागत हिंसक व्यवसाय छोड़ देना चाहिए। ___ तुम्हारे ये हिंसादिक कार्य और मिथ्यात्व हलाहल विष के समान अत्यन्त तीव्र दुःख देने वाले हैं। यदि तुम इस समय इस कुलधर्म को नहीं छोड़ते हो तो जैसे इस मुर्गा-मुर्गी के युगल ने दुर्गतियों में जन्म ले-लेकर तीव्र दु:ख भोगे, उसी प्रकार तुम भी इस असार संसार में कष्ट भोगोगे । (११०-११४) । अचेतन चूर्ण के मुर्गे की हिंसा करने से उत्पन्न यशोधार-चन्द्रमती की भवावली को सुनकर चण्डकर्मा दुःखों से भयभीत हो गया और बोला-हे यतिवर ! कुलागत समस्त सावद्य हिंसा कार्य और उसकी साधन सामग्री का आज से मैंने त्याग कर दिया। साथ ही सम्यग्दर्शनपूर्वक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार · शिक्षावत रूप, जिनोक्त गृहस्थ धर्म को भी मैं मन-वचन-काय से धारण करता ..हूँ (११५-१२१)। अभयरुचि ने इन भवान्तरों का व्याख्यान कर आगे कहा-मुनिराज द्वारा प्रतिपादित अपने चरित्र को सुनकर हम दोनों ने भी उस दुर्लभ गृहस्थ धर्म को हृदय से स्वीकार किया। हे राजन् ! उसी समय मुनिराज वहाँ से विदा हो गये। ___ पिंजरे में बन्द हम दोनों ने मुनि की वंदना से उत्पन्न हर्ष के अतिशय से शुभ और मधुर आवाज की । कुसुमावलि रानी के मदन-मन्दिर में स्थित यशोमति राजा ने हमारी आवाज सुनने के बाद हमारे ऊपर शब्दभेदी बाण चलाया और फलतः हम दोनों का मरण हो गया। दैवयोग से गृहस्थ धर्म का आचरण करने के कारण मरकर हम दोनों रानी के गर्भ में आये। गर्भ स्थित हम दोनों के धार्मिक संस्कार के कारण हमारी माता की मांस खाने में अरुचि होने लगी और गर्भणी रानी का दोहद सत्वों को अभयदान देने का होने लगा। उसी समय रानी का दोहद पूरा करने के लिए राजा यशोमति की आज्ञा से मंत्रीगण ने सारे देश में अभय की घोषणा करा दी और रानी को भी इस घोषणा की याद दिला दी। सर्व
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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