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जैसे समस्त धान्यों की उत्पत्ति में पानी को प्रधान कारण कहा जाता है, उसी प्रकार सर्व व्रतों की सिद्धि में जिनदेव ने अहिंसावत को प्रधान माना है। जो गृहस्थ सत्य, हितकारी, परिमित, धर्म तथा कीति के उत्पादक मर्मभेदी और अहिंसक वचन बोलता है वह श्रावक द्वितीय सत्याणुव्रत का पालन करता है। जो विवेकशील गृहस्थ मन, वचन, कायादिक से पतित, विस्मृत और नष्ट परद्रव्य को न स्वयं लेता है और न दूसरे को लेने की प्रेरणा देता है वह अचौर्याणुव्रत का पालन करता है । जो बुद्धिमान् श्रावक अपनी स्त्री के सिवाय अन्य सब स्त्रियों-को. माता के समान देखता है और वेश्यादिक व्यभिचारिणी स्त्रियों में आसक्त नहीं होता है वह श्रावक ब्रह्मचर्याणुव्रती कहा जाता है । जो गृहस्थ क्षेत्र, खेत, वस्तु, मकान, धन, धान्य, दासी, दास, गायादिक चौपायें, आसन, शयन, वस्त्र और भांड, बर्तन आदि दश प्रकार के बहिरंग परिग्रह में लोभ का त्याग कर बाह्य वस्तुओं को संख्या के परिणाम का नियम करता है और उतने में ही सन्तोषरूप सुधा का पान करता है वह श्रावक परिग्रहपरिमाणवती है। (८५-६७)।
विवेकशील श्रावकों द्वारा देश, अटवी, पर्वत, ग्राम, नदी, और योजन तक दशों दिशाओं की जो मर्यादा की जाती है, पूर्वाचार्यों ने उसे श्रावकों का दिग्विरति नामक गुणव्रत कहा है। बिना प्रयोजन के पापों का कारणीभूत आरम्भ का त्याग किया जाता है वह अनर्थदण्डव्रत कहलाता है और वह हिंसादानादिक के भेद से पाँच प्रकार का है। सब प्रकार के अचार, मुरब्बा, कंदमूल, कीड़ों से संयुक्त फल, नवनीत, पुष्प, चारों प्रकार का रात्रि भोजन, बिना छना पानी, दो दिन का शाक, भाजी, मठा, आदिक चीजों का त्याग करना चाहिए। अन्नपान आदिक भोग-वस्तुओं का तथा वस्त्र, अलंकार आदिक उपभोग की वस्तुओं का जो परिमाण किया जाता है उसे भोगोपभोगपरिमाण व्रत कहते हैं । घर, बाजार, राजमार्ग, सड़क, गली, ग्राम, पुरा तथा कोष आदिक के द्वारा दशों दिशाओं की मर्यादा ली जाती है उसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं। तीनों संध्याओं में पाप कर्मों का नाशक और धर्म की साधनाभूत जो क्रिया की जाती है उसे सामायिक नाम का दूसरा शिक्षा व्रत कहा है । अष्टमी और चतुर्दशी के पर्वो में सम्पूर्ण आरम्भ को छोड़कर स्वर्ग और मोक्ष के सुखों का दायक प्रोषधोपवास करना चाहिए। मुनीन्द्र आदिक उत्तम पात्रों को अपनी शक्ति के अनुसार जो चारों प्रकार का आहारादिक दान दिया जाता है वह अतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षाव्रत कहलाता है । और वह स्वर्ग और मोक्ष के सुखों का दायक है । जीवन के अन्त समय में गृहस्थाश्रमी को, मोह-ममता और चारों प्रकार के आहारों का . त्यागकर उत्कृष्ट संल्लेखना धारण करनी चाहिए। जो मनुष्य भावपूर्वक इस गृहस्थ धर्म का पालन करते हैं, वह क्रम से स्वर्ग के इन्द्रादिक पदों का तथा मनुष्यलोक