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________________ 859 चक्रवति प्रद, नारायण-बलभद्रादिक का होना, देवत्व, तीर्थकर पद आदि “सब कुछ उत्तम सामग्री इस संसार में धार्मिक ही पाते हैं। धर्म रूप कल्पवृक्ष का यह सब फल है। कठिन व्याधि में, सागर में, दुर्ग में, क्न में, मृत्यु के समय भयंकर रण में, और सभी जगह आपत्ति के समय जीवों का रक्षक धर्म ही होता है। सज्जनों के लिए धर्म ही माता-पिता और बन्धु है। धर्म ही देव है, धर्म ही किंकर के समान त्रिलोकी सुखों को प्रदान करता है । (६१-७३) अत्यन्त कुरूप स्त्रियाँ, शत्रु के समान पुत्र और बांधब, सतत दु:ख देने वाले शत्रु माता-पिता और कुटुम्बीजन, दरिद्रता, सदा रोगी रहना, लोगों का प्रेम न पाना, कुशीलता, नीच कुल में जन्म होना, मंद और कुत्सित बुद्धि होना, कुरूप होना, परोपकार के भाव न होना, अपयश होना, गहित लोगों की संगति करना, मूर्ख होना, तथा पंगु, मूक, हीनशरीर तथा बधिर होना, व्यसनी, दीन तथा दुर्गति के दु:खों की परम्परा, कृपणता, क्रूरता, पापी और स्वल्प जीवन होना; निर्दयता, स्वेष्ट का वियोग तथा अनिष्ट का संयोग, निर्गुणत्व, हीनत्व, विषयों में लंपटी होना, तथा कषायों से सिक्त होना; कुज्ञान का होना, कुसंगति करना, हेयोपादेय का अभाव, परिणामों में वक्रता व मायावी होना आदि जैसे सभी पाप रूपी धतूरे के फल हैं । संसार में जो.दु:खदायक वस्तु हैं, दुर्गति हैं, असहनीय रोग हैं, वह सब पापकर्म से ही प्राप्त होते हैं। अविवेकीगण मन-वचन-काय से मिथ्यात्व, अविरत और कषायों से अनिष्टकारी पापों का निरन्तर संचय करते हैं। अतएव मन-वचन-काययोग से दया प्रधान यतिधर्म और गहस्थ धर्म का सदा पालन करना चाहिए । हिंसामूलक धर्म का आश्रय लेना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है । (७४-८४) ___ इसके बाद चण्डकर्मा के आग्रह पर मुनिराज ने श्रावक धर्म का वर्णन किया। तदनुसार सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है, वह सम्यग्दर्शन शंकादिक आठ दोषों से रहित होता है। जिस प्रकार तरु का मूल उसका आधार है उसी प्रकार सम्यक्त्व भी समस्त व्रतों की शुद्धि का कारण है । जैसे जड़ के होने से वृक्ष के फल-फूल आदिक की वृद्धि होती है। वैसे ही सम्यग्दर्शन . के होने पर ज्ञान और चरित्र, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहलाते हैं। 'मद्यत्याग, मांसत्याग और मधुत्याग तथा पाँच उदुम्बर फलों का त्याग ये श्रावकों के आठ मूलगुण हैं । ये मूलगुण सब व्रतों की भित्ति हैं। धूत, मांस, शराब, वेश्यागमन, शिकार, चोरी और पर-स्त्रीयमन, ये सात पापकारी व्यसन हैं । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत ये चार श्रावकों के व्रत हैं । जो मानव मन, वचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना के नवः भंगों से त्रस जीवों की रक्षा करता है, उस गृहस्थ का यह पहला अहिंसाणुव्रत कहलाता है।
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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