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इसलिए शंख की ध्वनि की तरह जीव शरीर से भिन्न है । अत: तुम देह और देही को भिन्न समझो ।
कोतवाल फिर महाराज से बोला- आपका पूर्वोक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि एक बार मैंने संजीव चोर को तराजू से तोला और उसी मृत चोर को दुबारा तराजू पर तोला । सजीव चोर और मृत चोर का वजन बराबर था इस लिए आत्मा और शरीर एक ही है, अलग-अलग नहीं है । (४०-५० ).
● मुनिराज इस प्रश्न का सयुक्तिक उत्तर देते हुए बोले- किसी पुरुष ने वायु से घड़े को भरकर तोला और पीछे वायु से खाली करके घड़े को तोला । वायु सहित घड़े का जो वजन था, वायु रहित घड़े का भी वही वजन था, उसी प्रकार सजीव प्राणी और देह का वजन बराबर है। इसी हेतु से जड़ शरीर से चेतनायुक्त जीव को भिन्न जानो । अनुमान प्रमाण से भी जीव और शरीर भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं, ऐसा समझो !.
एक प्रसिद्ध उदाहरण देकर पुनः प्रश्न का समाधान किया मुनिराज ने -- किसी पुरुष ने अरण ( जलती लकड़ी) के परमाणु बराबर छोटे-छोटे टुकड़े किये और उन प्रत्येक अरणि के टुकड़ों को बड़े प्रयत्न से देखा, पर लाख प्रयत्न करने पर भी एक में भी अग्नि देखने को नहीं मिली। जैसे अरणि के टुकड़ों में आग विद्यमान होने पर भी वह कहीं दिखाई नहीं देती है, उसी प्रकार देह के खण्डखण्ड होने पर भी जीव दिखाई नहीं देता है ।
इसलिए, हे कोतवाल, मेरे वचनों पर विश्वास करो और शरीर से भिन्न सेक्सत जीव द्रव्य है ऐसा जानो ।
वह जीव अत्यन्त सूक्ष्म है, कार्माण शरीर से युक्त है, अनादि तथा अन्त "है । और अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । जिनशासन में प्रतिपादित जीव का यही स्वरूप है । (५१-६० ) ।
सत्य पर प्रतिष्ठित मुनिराज के वचनों को सुनकर कोतवाल के परिणाम विशुद्ध हो गये और उसने उन्हें प्रणाम कर जीवन को सार्थक बनाने का मार्ग पूछा । मुनिराज ने उत्तर में कहा – सम्यक् धर्म के अतिरिक्त और कोई दूसरा मार्ग नहीं है जो उपादेय कहा जा सके। मदोन्मत्त उन्नत गजराज, वायु के समान वेगवाला वाजि समूह, रथ, बलशाली योद्धा, शत्रुओं को दहलाने वाला राज्य तथ खजाना, लावण्य से सुशोभित ललना ललाम, कामदेव के समान पुत्र, बाँधव, अनुकूल कुटुम्ब और सुख-सामग्री, नवनिधि, चौदह रत्न, सुखदायी सम्पत्ति, कीर्ति, भोगोपभोग की सामग्री, छत्र, चमर, शयन, पान और आसन, उत्तम उत्तम वस्तुएँ, नीरोगता, सुरूपता, आज्ञा-प्रभुता, विद्वत्ता आदि गुण, इन्द्र पद