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- वह कोतवाल ऐसा सोचकर उस साधु के पास जाकर मायापूवक वन्दना करके उन के चरणों के समीप बैठ गया। इसी बीच मुनिराज की समाधि पूर्ण हो गयी, और वे कोतवाल को 'धर्मवृद्धि हो' ऐसा आशीर्वाद देकर शान्ति से अपने स्थान पर बैठ गये। कपटी और दुष्टआशयी कोतवाल ने मुनि महाराज से पूछा, 'हे साधु ! एकाग्रचित्त से अपने चित्त में आज कौन-सी वस्तुओं का ध्यान किया है आपने?' अवधिज्ञान से उस कोतवाल के दुष्ट विचार को जानकर मुनिराज ने उत्तर दिया जैसे इस वन में छह ऋतुएँ अपने-अपने समय पर आतीं और चली जाती हैं, वैसे ही इस संसार में जीव अनेक शरीरों को ग्रहण करते हैं और छोड़कर नया शरीर धारण करते है। क्योंकि संसार के सब प्राणी कर्मरूपी लौहशृंखला से बंधे हुए हैं, चारों गतियों में होने वाले अनेक दुखों को पाते हैं और अस तथा स्थावर योनियों में जन्म धारण कर जरा, जन्म और मृत्यु से उत्पन्न होने वाले अनेक दुःखों को प्राप्त करते हैं। संसार, देह और भोगों से विरक्त किन्हीं भव्य जीवों को तप और रत्नत्रय के पालने से नित्य उन्नत सुखों का सागर रूप मोक्ष प्राप्त होता है। मैंने रत्नत्रय रूप जिनप्रतिपादित मार्ग का पालन कर, गृह को बन्धन जैसा अनुभव कर, मुक्ति रूपी दूती इस जिनदीक्षा को धारण किया है । गुरु महाराज के उपदेश से, यह आत्मा शरीर से भिन्न, निरंजन और सिद्ध स्वरूप है, ऐसा जानकर मैं एकाग्रचित्त हो अपने भीतर उस आत्मस्वरूप का ध्यान करता हूँ। (२७-३६)
चण्डकर्मा फिर मुनिराज से बोला, हे साधु ! शरीर और आत्मा में क्या भेद है ? मुनि ने उत्तर दिया-आत्मा चेतन है और शरीर जड़ है।
. 'जैसे चम्पक का फूल नष्ट होता है तो उसकी गन्ध भी नष्ट हो जाती है। उसी प्रकार देह के नाश होने से चेतना का नाश हो जाता है । इसलिए "इस क्षणिक जीव का संसार में अस्तित्व नहीं' ऐसा कहकर आत्मा के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। चम्पक की गन्ध फूल से पृथक् है क्योंकि वह तेल में लग कर सूंघने में आती है । उसी प्रकार शरीर से यह जीव पृथक् है । इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए। . मुनिराज कोतवाल के प्रश्न का उत्तर देते हुए पुन: बोले-किसी पुरुष ने पेटी में शंख रख दिया और उस पेटी को लाख से चारों तरफ बन्द कर दिया । ___ जब वह शंख बजाया जाता है तब उसका नाद लोग बाहर सुनते हैं लेकिन निकलता हुआ वह नाद किसी भी पुरुष के नेत्रों से बाहर नहीं देखा जाता है । जैसे उस पेटी से शंख की ध्वनि बाहर निकलती हुई नहीं देखी जाती है, उसी प्रकार शरीर से बाहर निकलते हुए जीव को लोग देख पाने में समर्थ नहीं होते हैं।