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जब वह कोतवाल वन-लक्ष्मी को देखता हुआ अशोक वृक्ष के पास गया तो उसने अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान- मुद्रा में अवस्थित मुनि को देखा ।
वे मुनि ध्यान में लीन थे - इहलोक और परलोक के सुखों की आशा से रहित थे; राग-द्वेष से शून्य थे; कर्म का नाश करने के लिए सदा उद्यत रहते थे; बाह्य और अन्तरंग तपों से विभूषित थे । कायदण्ड, मनोदण्ड और वचनदण्ड रूपी बेरी तथा माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों के नाशक थे; मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान तथा कायगुप्ति, वचनगुप्ति एवं मनोगुप्ति से सहित थे; तीन अज्ञान और तीन गर्वो से रहित थे; रत्नत्रय से अलंकृत थे ।
चार आराधनाओं के आराधक थे; चारों गतियों से मुक्त होने में उद्यत थे; चार कषाय रूपी शत्रुओं के नाशक थे; चारों घातिया कर्मों के घातक थे; पांचवीं गति मोक्ष में आसक्त थे; पंचाचार, षडावश्यक और पाँच समिति एवं पाँच महाव्रतों के पालक थे।
वे मुनि छह द्रव्यों के ज्ञायक थे, षट्कायिक जीवों के दयापालन में कुशल थे, पूज्य थे, छह अनायतनों के निवारक थे; सात तत्वों के व्याख्यान में प्रवीण थे; सप्त ऋद्धियों से विभूषित थे; सप्तम गुणस्थान में विराजमान थे, और सप्त प्रकार के भयों से विरहित थे ।
आठ मदरूपी हाथी को सिंह के समान थे, आठवीं भूमि में जाने को उद्यत थे; आठ कर्मरूपी शत्रुओं को नाश करने वाले थे; और सिद्ध परमेष्ठी के आठ गुणों के इच्छुक थे; नव प्रकार के ब्रह्मचर्य व्रतों से युक्त थे; क्षमा आदिक दश धर्मों के आकर थे; जिनका शील ही आयुध था; दिशा रूपी वस्त्र को पहिनने वाले थे; नग्न थे; शरीर के संस्कारों से शून्य थे ।
महामुनि सिंहविक्रीडितादिक तपों के पालन करने से अत्यन्त क्षीण- दुर्बल शरीर वाले थे; मलों से जिनका शरीर अत्यन्त मलिन था, और रत्नत्रयादिक तथा मैत्री प्रभृति गुणसम्पत्ति से परिपूर्ण थे । वे समस्त संसार के सत्व समूहों के लिए हितैषी थे, भव्य जीवों को संसार सागर से पार करने वाले थे; मदन के मद के भंजक थे, अभीष्ट वस्तु के दायक थे; जगतवन्द्य थे, दया के अवतार थे और पापों से भयभीत थे । (१६-२६)
उन मुनिराज को देखते ही चण्डकर्मा कोतवाल सोचने लगा - लज्जारहित मलिन शरीर वाले नग्न साधु ने महाराज यशोमति के इस सुन्दर वन को अपवित्र कर दिया है । मैं किसी सरल उपाय से इस नगे बाबा को उद्यान से निकाल दूंगा । हाँ, निकालने का यह उपाय मुझे मिल गया है । अब मैं इन बाबाजी के पास जाकर कुछ पूछता हूँ । यह बाबा जो कहेगा मैं उसके विपरीत कहूँगा, तब यह साधु बाबा घबड़ाकर स्वयं ही इस वन से बाहर कहीं चला जाएगा ।