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चरित्र निंदनीय है और अपने खोटे कर्मों से यह अवश्य ही नरक जाएगी। (६२-१०१) . वह नीच अमृतमती पुत्र के सामने दासी के वचन सुनकर और उस विषय को भलीभांति जानकर वहाँ पर बैठ गयी । उस समय वह अतीव बुरी मालूम होती थी और उसे देखकर अत्यन्त ग्लानि पैदा होती थी। उसकी अंगुली गल-गलकर गिर गयी थीं, नाखून और पैर फट रहे थे, नाक भी सड़कर दब गयी थी, आँखें धस गयी थीं, शरीर बेरूप हो गया था। उस समय उसके शरीर को देखकर सब निन्दा करते थे । अमृतमती के शरीर की ऐसी बुरी दशा देखकर मैंने सोचा-'जब इसके विचार, मन और आत्मा शुभ-परिणामों वाले थे उस समय इसका शरीर भी सुन्दर था और जब अपनी ही बुरी-चेष्टाओं से आत्मा मलिन हुई तब आत्मा के मलिन-विचारों के साथ-साथ ही अशुभ योग से इसका सुन्दर शरीर भी दुर्गन्धमय और घृणा का घर बन गया । इसलिए किसी भी व्यक्ति को प्राणों का संकट उपस्थित होने पर भी कभी भी पाप नहीं करना चाहिए। यह पाप ही सब अनिष्टों का जनक है ऐसी चिन्ता मेरे मन में पैदा हुई । (१०२-१०६)
तब देवी अमृतमती ने पाचक से बकरा या बकरी का मांस खाने के लिए माँगा । राजा यशोमति ने भी फिर रसोइये से कहा-बकरे को मारकर और उसके मांस को धीमी आँच से पकाकर शीघ्र ही लाओ।
उस पाचक ने उसी समय मेरा एक पैर काटकर और उसका मांस पकाकर महाराज यशोमति के आगे लाकर रक्खा। मांस को देखकर वह राजा फिर पाचक से बोला-यह मांस स्वर्गगत पितरों की तृप्ति के लिए इस वैदिक विद्वान को दे दो
और बकरे के अवशिष्ट मांस को माता अमृतमती को दे दो। रसोइये ने राजा के वचन को पूरा किया। संसार में मूर्ख लोगों की इस प्रकार पापयुक्त चेष्टा होती है । (१०७-११०)
बकरा और भैसा
- मेरे पुत्र यशोमति ने बकरे के साथ जो बकरी मारी थी, वह बकरी अपने पापकर्म के उदय से कलिंग देश में एक महान् हृष्ट-पुष्ट भैंसा हुई । वह भैंसा अनेक प्रकार के पदार्थों से भरी हुई गोन को लादकर ले जाकर पापकर्म के उदय से उसी विशाला नगरी में आया । बोझ उतारकर तथा गर्मी और धूप के दाह से अत्यन्त पीड़ित होकर वह भैंसा शीत का सुख पाने के लिए क्षिप्रा नदी में निमग्न होने लगा। उसी समय क्षिप्रा पर राजा के घोड़े जल पीने को आये । उस मदोन्मत्त