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और भार के उठाने से व्याकुल भैसे ने राजा के घोड़ों को अपने सींगों से फाड़ डाला। उस प्रहार की वेदना से वे जमीन पर गिरते ही मर गये। घोड़ों के मरने का समाचार राजा ने जैसे ही सुना, वह उस भैंसे पर अत्यन्त क्रुद्ध हो गया । शीघ्र ही यशोमति अपने समीप स्थित पाचक से बोला-उस हत्यारे में से को मारकर मेरे पास लाओ। उस निर्दयी पाचक ने मुझे पकड़कर और पास में ले जाकर लोहे की चार कीलों पर मेरे चारों पैरों को दृढ़ सांकल से बाँध दिया और फिर हींग आदि मसालों के साथ पानी भरकर एक कड़ाही आग पर रखी और खादर की आग से उस जल को पकाया । आग की वेदना से पीड़ित उस भैंसे ने वह गर्म पानी पिया । उस गर्म पानी के पीने से पेट का सारा मल निकल गया। उस समय वह भैंसा क्रन्दन, कर्षण, विशाल फूत्कार और पतन तथा उत्पतन कर रहा था। पूर्व कर्म से ही प्रत्येक जीव दुःख-सुख पाता है। उसी समय महाराज ने आज्ञा दी उस दुष्ट भैंसे का पका-पका माँस काट-काट कर मुझे खाने के लिए लाओ। जिसजिस अंग में वह भैंसा पकता जाता था उस-उस अंग को काट-काटकर पाचक महाराज आदि को परोसता जाता था और वे सब बड़े आनन्द के साथ खाते जाते , थे । उस भैसे की अवर्णनीय दशा को देखकर मैं भयभीत हो गया और उसके बध से उस समय मुझे भयंकर शारीरिक और मानसिक दुःख हुआ (१११-१२३)।
उस दु:ख के स्मरण से आज भी मेरा शरीर पवन से कम्पित पत्र की तरह काँप रहा है । यह देखो, जब मैं रक्षक से रहित तीनों पैरों के सहारे सुख से खड़ा था। उसी समय राजा यशोमति ने कहा-इस बकरे को हलाल कर पका लाओ। उसी समय उस पाचक ने मुझे खींचकर जलती हुई आग में डाल दिया। मैं दीन दुःखभरी आवाज कर रहा था और बार-बार फड़फड़ा रहा था , मेरे अंग-प्रत्यंगों का छेदन-भेदन किया जा रहा था और उन पर नमक का पानी छिड़का जा रहा था उस यशोमति राजा के सेवक प्रज्ज्वलित आग में अच्छी तरह से मुझे जला रहे थे। उस समय मैं वह्निजात शारीरिक वेदना और मानसिक तीव्र दुःखों को भोगकर पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से देर में मरा। (१२४-१.०८)
जो मूर्खजन दयाधर्म का उल्लंघन कर जीवों की हिंसा करते हैं वह मूर्ख. अज्ञानी अनेक दुर्गतियों में चिरकाल तक शारीरिक एवं मानसिक अनेक प्रकार के असह्य दु:खों को भोगते हैं । इसलिए विवेकीजन कभी भी अहिंसा धर्म का आचरण न छोड़ें और प्राणान्त काल आ जाने पर भी दुःख से छुटकारा पाने एवं मुक्ति एवं स्वर्गादिक प्राप्ति की कामना से जीवों की हिंता न करें । (१२६).