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________________ ३३ • यशोमति मुझे लेकर अपनी माता के पास गया और माता के सामने मुझे रखकर इस प्रकार वहां पर वचन बोलने लगा, हे माता ! यह रोहित मत्स्य श्राद्ध में पितरों को तृप्त करने में समर्थ है और वेद के जानकर विद्वानों ने वेद में श्राद्धः करने का विधान बताया है इसलिए इसके बहाने से हे माता ! तुम श्राद्ध करो - जिससे हमारे पिता और पितामही चन्द्रमती स्वर्ग में निरन्तर सुख भोगें । उस अमृतमती ने मेरे मस्तक पर पैर रखकर, पूंछ काटकर भोजन शाला में ले जाकर अनेक मसालों के साथ मेरे मांस को घी में तला । मेरी स्त्री अमृतमती ने पुत्र और वधूजनों के साथ यह तला हुआ मेरा मांस खाया । इस प्रकार चिरकाल तक अनेक दुखों को भोगकर मैं मरा। हे राजन् ! मरने के बाद मैं कसाईखाने में पैदा हुई उस बकरी के गर्भ में आया । (६५-७३) अत्यन्त कष्टों से जन्म पाकर तथा बाल्यकाल में भूख, प्यास, शीत और गर्मी के अनेक दुःखों को पाकर, क्रम से जवानी में कदम रक्खा। एक दिन मैं मन्दबुद्धि अपनी माँ के साथ ही काम सेवन कर रहा था कि झुण्ड के प्रधान बकरें ने मुझे ऐसा करते हुए देखा। उस बड़े बकरे ने गुस्से में सींगों से मेरा पेट फाड़ डाला । तब जीवन अवस्था में ही मेरा वीर्य उस बकरी के गर्भ में प्रविष्ट हो चुका था। इस प्रकार दुःख से मरने वाले मुझ पापी ने अपने ही वीर्य से अपनी माता में अपने को पैदा किया । (७४-७७) 4: एक दिन मेरे पुत्र यशोमति ने उस हृष्ट-पुष्ट बकरे को आसन्न प्रसववाली माता रूप उस बकरी के साथ देखा । शिकार के न मिलने से उस क्रुद्ध यशोमति राजा ने उस बकरी के साथ बकरे को बाण मारा और पापकर्मोदय से बकरा-बकरी शीघ्र ही मर गये । बाण से बिद्ध उन बकरा और बकरी को पाकर हिंसा के आनन्द से मत्त उस यशोमति ने बकरी के गर्भ में स्थित चलते हुए मुझे देखा और यह का बालक कितना सुन्दर है, यह कहकर पालन-पोषण के लिए दे दिया । I मैं बकरी के दूध को पीकर जीवित रहा और क्रम से तरुण हुआ। एक दिन उस दुष्ट यशोमति राजा ने कात्यायिनी देवी को नमस्कार कर यह पापयुक्त वचन कहे – हे कात्यायिनी देवि ! यदि आज मुझे शिकार में सफलता प्राप्त हुई तो हम आपके चरणों में आकर आपको सन्तोषकारक बीस भैंसों की बलि भक्ति -- पूर्वक दूंगा । ( ७८-८४) कतालीय न्याय से उस पापी यशोमति राजा की कामना पूर्ण हुई, तब आकर निर्दयतापूर्वक देवी के मन्दिर के आँगन में आनन्द के साथ भैंसों की बलि चढ़ाई। राजसेवक उस मांस को राजा के भोजनालय में राजा, अमृतंमती,
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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