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________________ पोषण के लिए भेज दिया और मुझ मयूर के भी पालन-पोषण हेतु एक वृद्ध पुरुष . नियुक्त कर दिया । एक दिन अपने राजमहल की छत पर अपनी इच्छा से उस कुब्जक की गोद में स्थित उस व्यभिचारिणी अमृतमती को देख कर मुझे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब पूर्व जन्म के वैर से क्रोध से उन्मत्त होकर मैंने अपने निशित नखों से उन दोनों के मस्तक पर खूब प्रहार किया । कुब्जक और अमृतमती ने कोप से पागल, कांची माला और गहनों से मुझे पीटना आरम्भ किया। उन दोनों के एव दास दासियों के लाठी, मुट्ठी और पाद-प्रहार की तीव्र पीडा से बैचेन होकर मैं भूतल पर गिर पड़ा । अर्धचवित मुझ मयूर को छोड़कर सभी लोग 'यथा स्थान चले गये । मेरे कर्म के उदय से मेरा वहाँ कोई रक्षक नहीं था । मैं अत्यन्त दीन था। मुझे देखकर पांसा या जुआ खेलने वाले मेरे पुत्र यशोमति . ने मेरे अशुभ कर्मोदय से कुत्ते को आज्ञा दी, इस मोर को तू बचा ले । लेकिन इस कुत्ते ने बल से श्रृंखला को तोड़कर आनन्द से पूरित हो अपनी निशित दाढ़ों से मेरा गला पकड़ लिया । निर्दय चित्त उस यशोमति राजा ने उस कुत्ते पर प्रहार किया। बेचारा कुत्ता भी प्रहार की वेदना से व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़ा और अर्धचर्वित मुझ मयूर को छोड़कर यमपुर का अथिति बन गया। (१७-२४) ... इस प्रकार उस शठ राजा ने अपने पिता और दादी का मरण किया। अपनी माता अमृतमती और हम दोनों को जमीन पर गिरा देखकर, वह मूर्ख यशोमति राजा शोक से व्याकुल होकर पहले के समान चिरकाल तक रोता रहा। तब राजा ने स्वयं पुरोहित और सेवकगणों से कहा-"माता अमृतमती, मयूर और श्वान का दाह-संस्कार ज्येष्ठ पुरुषों की भांति करो। और इन को स्वर्गप्राप्ति के लिए इनकी अस्थि और भस्म आदि ले आकर गंगाजी. में डालो। पुरोहित ब्राह्मणों के लिए गो, सोना, वस्त्र और भोजन का दान दो।' हमारे सुख के लिए राजकुमार, मंत्रिगण और पुरोहितों ने हमारे मृत शरीर सम्बन्धी सब संस्कार किये। इनके कहने से हमें कोई सुख नहीं मिला, किन्तु दुर्गति और उसके दुःख मिले । जो मूर्खजन अपने मृत माता-पिता आदि की तृप्ति के लिए श्राद्ध अदिक दान करते हैं, वे पुरुष निष्प्रयोजन ही, देवों को तुष्ट करने के लिए राख का संचय करते हैं। (२६-३१) सेलु और सर्प सुवेला नामक नदी के किनारे, कटीली झाड़ियों से युक्त और घातक तथा हिंसक सिंह व्याघ्र आदि जीवों से भयानक भीम नाम का वन है । उस भीमवन में पाप कर्म के उदय से अपूर्ण समय में ही मैं सेलु के रूप में उत्पन्न हुआ
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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