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________________ भोजन करने अमृतमती की भोजनशाला में गया। उस रानी अमृतमती के महल में अपने परिवार के साथ सुन्दर आसनों पर बैठकर अनेक प्रकार के सुन्दर- . स्वादिष्ट भोजन कर मैं पूर्ण संतुष्ट हो गया । भोजनोपरान्त मेरे परिजन, बांधव, प्रियायें आदि सभी लोग मुझे तपोपथ पर जाने से रोकने लगे। (१०१-११४) इधर दुष्टा अमृतमती ने सोचा-इस यशोधर राजा ने मेरे पुत्र को राजलक्ष्मी दे दी है । यह मेरे चरित्र को जानता है इसलिए राजमाता और यशोधर इन दोनों को विष देकर मार डालूं । फिर निर्विघ्न होकर अपने प्राणवल्लभ कुब्जक'. के साथ इच्छानुसार काम-सुखों को भोगूंगी। नरक-बंध करने वाली वह कुलटा रानी अपने पति यशोधर महाराज से मधुर वचन बोली-हे पतिदेव ! हमारे ऊपर दयाकर मेरे मायके से आये हुए इन मधुर और स्वादिष्ट मोदकों को खावें।' यह कहते ही उस कुलटा ने तत्काल ही लड्डू लाकर मुझे और मेरी माता को : खाने के लिए दिये । यह सब जानते हुए भी मूर्खतावश मैंने माता के साथ दैवयरेग से वह लड्डू खाये। उसी समय उस विष का असर शरीर पर होने लगा। मेरी जिह्वा जड़ हो गयी और शरीर के सब अवयत्र धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगे। विष से व्याकुल एवं मूछित मुझे कुल्ला कराकर सेवकों ने उठाकर दूसरे आसन पर लिटा दिया। उस समय मेरे शरीर में असह्य दाह होने लगा और शरीर में स्वेद की भागीरथी बहने लगी। विष के प्रभाव से समस्त दिङ मंडल मुझे घूमता हुआ दिखायी देने लगा। बेहोश होकर दुर्गति के समान जमीन पर धीरे से आसन से लुढ़क पड़ा मानो मैं महापाप हिंसा के भार को उठाने में असमर्थ हो गया था । लड़खड़ाती जबान में दीन वचनों से मैंने सेवकों को पुकारा और कहा-जल्दी विषवैद्यों को बुलाकर मेरे पास लाओ। (११.५-१२३) __जब उस कुलटा ने वैद्यों का आगमन सुना तब वह जल्दी आकर मेरे ऊपर मूर्छा के बहाने गिर पड़ी और अपने दोनों बाहुओं से मेरे कोमल एवं. हारों से अलंकृत कण्ठ को दबाया। इस तरह उस कुलटा अमृतमती ने मुझे निष्प्राण कर दिया। मुझे मृत जानकर सब देवियाँ, भृत्यगण और राजकुमार रोने लगे। सभी के शरीर राजा के शोक से अन्दर-अन्दर ही जलने लगे और रक्षक रहित अनाथ हो गये । मंत्रिगणों के समझाने पर कुछ रानियों ने तो शोक में दीक्षा धारण कर ली और कोई घर में रहकर तप करने लगी। महाराज के विरह एवं शोक में मंत्रियों की सांत्वना पाकर सेवकगण संसार से विरक्त हो गये और कोई घर पर रहकर धर्माराधन करने लगे । मेरे मरने पर मेरे मूर्ख पुत्र ने मेरी तृप्ति के लिए हजारों ब्राह्मणों के लिए पृथिवी, गाय, सोना, चाँदी, वस्त्र आदिक वस्तुएं दान में दीं। जैन धर्म को छोड़कर जीवहिंसा करने के कारण मैं अपनी माता के साथ दुःख सागर रूप दुर्गति को प्राप्त हुआ। (१२४-१२६)
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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