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________________ २७- - कात्यायिनी देवी के सामने आटे के मुर्गे को रखकर मैं (यशोधर) देवी से बोला'हे कात्यायिनी माता ! सर्व राज्य, परिवार और प्रजा के कल्याण के लिए यह मुर्गा आपके चरणों में समर्पित है। मेरे परिवार और सातों राज्यों के अंगों में कुशल शान्ति होवे, ऐसी प्रार्थना कर मोहांधकार से अन्धे मैंने (यशोधर ने) अपने हाथ से उसे मारकर देवी की पूजा की । उस समय मैंने उस कदाचार से नरकगति को देने वाले पाप का बन्ध किया। माता ने भोजनालय में उसका मांस भेजा। साथ में यह भी कहला भेजा कि अशुभ स्वप्न की शान्ति के लिए देवी का आशी र्वादात्मक यह भोग मैं खाऊँ । मैंने उसे देवी के प्रसाद के रूप में खाने के विषय में माता से बहुत वाद-विवाद किया । मैं मोहांधकार से अन्धा था । फलतः मैंने वह कृत्रिम मांस भी खाया। बाद में सामन्त तथा मंत्री मण्डल की उपस्थिति में अपने प्रिय पुत्र युवेराज यशोमति का राज्याभिषेक अपने हाथों से किया और राज्य के साथ सर्व अतुल वैभव, खजाना आदिक पुत्रों को सौंप दिया । (८९-१००) दीक्षा के लिए तत्पर मुझ यशोधर को देखकर निर्लज्ज कुलटा रानी मेरे पास आकर और मेरे चरणों में गिरकर यह वचन बोली-हे नाथ ! आज आपने यह तप करने का वचन कैसे कहा ! यह वज्रतुल्य वचन सुनकर मेरा हृदय फटा जा रहा है । मैं आपके विरह-वियोग को क्षण भर भी न सह सकूँगी और हे नाथ, आपके बिना मैं कैसे जी सकूँगी ? मैं तो शोक-सागर में पड़ गयी । हे नाथ ! आज आप ठहरें, दीक्षा ग्रहण न करें और हम सब को दर्शन दें। फिर कल आपके साथ .मैं भी दीक्षा धारण करूँगी और. तुम्हारी भक्ति करने वाली दासी बनूंगी। आपके साथ कठिन तप कर यह निदान बाँधुंगी कि जन्म जन्मान्तरों में आप ही मेरे प्राणवल्लभ पतिदेव हों और अन्य नहीं । कुलटा रानी के वचन सुनकर मैं अपने मन में हंसा । देखो यह कुलटा रानी मुझे ठगने में तत्पर है और इसका हृदय मलिन और क्रूर है । यह दुष्टा उस कुब्जक पति को छोड़कर मेरे साथ यह दुर्द्धर दीक्षा धारण करेगी, यह बात तो मुझे स्वप्न-सी प्रतीत होती है । इन स्त्रियों की चेष्टा तथा अभिप्राय को जानने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है । वह अपने जीवित पति को भी छोड़ देती है और पतिदेव की मृत्यु होने पर उसकी चिता में साथजल भी जाती है । तब मैंने ऐसा विचार कर, हे राजन् ! उस दुष्टा से कहा-हे. सुन्दरी, उठ । क्या कभी मैंने तुम्हारे वचनों का उल्लंघन किया है । तब वह कुलटा. उठकर बोली- मेरे महल में आपका निमन्त्रण है । आज आप मेरे ही महल में राजमाता और अपनी प्रियाओं के साथ भोजन करें। हे राजन् ! उस कुलटा की कुटिलत को जानते हुए भी मैंने अपने जीवन का नाश करने वाला रानो का वचन मान लिया। तब देव, जिनेन्द्र शास्त्र और गुरु की भक्तिपूर्वक पूजा करके तथा स्तुति कर भोजन की इच्छा न होने पर भी माता और अपनी सब स्त्रियों के साथ मैं
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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