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________________ आज रात को मैंने एक भयानक स्वप्न देखा है; एक अतीव क्रूर राक्षस, जिस राक्षस के सिर पर जटाजूट हैं, जो विशालदेही है, विकरालमुखी है और अत्यन्त रोद्र परिणाम वाला है, मुझसे स्वप्न में कहता है कि तुम अपने पुत्र को राज्य देकर शीघ्र ही मुनि बन जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है, अन्यथा राज्य तथा राजपरिवार के साथ मैं तुम्हें नष्ट कर डालूंगा। इसलिए सभी को महानाश से बचाने के लिए मैं अपने पुत्र को राज्य देकर देवों को भी अतीव दुर्लभ संयम का . पालन करूंगा। उस भयानक स्वप्न को सुनकर माँ भय से कंपायमान हो गयी और मुझ से बोली-हे पुत्र, विघ्नों को दूरकर चिरकाल तक समस्त भूमण्डल का । पालन करो और उस स्वप्न को पूरा करने के लिए आज ही तुम अपने हाथ से शीघ्र ही पुत्र यशोमति का पट्टबंधपूर्वक राज्याभिषेक करो। दूसरी बात यह है, हमारे वंश की कात्यायिनी देवी कुलदेवता है। उसकी हमारे वंश पर सदैव कृपा बनी रहती है और सदा ही हमारी विघ्न-बाधाएँ,. उपसर्ग, दुःख और बुरे स्वप्नों का समूल नाश कर देती है। __ हे पुत्र ! उस अशुभ स्वप्न का नाश करने के लिए स्वयं अपने ही हाथों से जलचर और थलचर जीव-युग्मों को मारकर. भक्ति से कात्यायिनी माता की पूजा करो। (११-२०) ___ माता के कथित हिंसाजनक बचनों को सुनकर अपने दोनों हाथों से मैंने कानों को ढंक लिया और माता से कहा-आपके वचन मिथ्या हैं, निन्दनीय हैं, जीवविघातक हैं और धर्मविनाशक हैं । हिंसाजन्य पापों से अनेक विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, असह्य दुःख, भयंकर रोग और क्लेश की राशि पैदा होती है, लोक में निन्दा होती है, क्रूर से क्रूर पाप होते हैं, जीव नरक और तिर्यंच गति में जाता है, मनुष्यों की राजलक्ष्मी, परिवार, वैभव, भोग और उपभोग की सामग्री का नाश हो जाता है। जो शठ भयभीत प्राणियों का घात करते हैं प्राणिहिंसा करने वाले वे जन्म से ही अंधे होते हैं, कुबड़े पैदा होते हैं, दीन होते हैं, निर्धन होते हैं, बौने होते हैं, कुरूप होते हैं, भोग और उपभोग से हीन होते हैं, दूसरों के सेवक होते हैं तथा सदा शोक से व्याकुल बने रहते हैं, नारकी होते हैं, नीच तिर्यंच गति में जन्म लेते हैं, कुष्ट आदिक आठ व्याधियों से पीड़ित रहते हैं । सदा अनिष्ट वस्तुओं का संयोग उन्हें होता रहता है और इष्ट वस्तु के वियोग में वे सदा बेचैन बने रहते हैं। जो निर्दयी प्राणि-हिंसा करते हैं वे पापी जीव उस कर्म के उदय से अनेक प्रकार के दुःखों को अनन्त भव में भोगते हैं। हे. माता ! इस संसार में जो कुछ भी रोग और क्लेशजन्य दुःख हैं, वह सब दुःख . मनुष्यों को प्राणियों की हिंसा करने के कारण मिलता है । दूसरी बात यह है, जिनभगवान् ने जो धर्म कहा है, वह अहिंसा लक्षण वाला है, सर्व विघ्न-विभाशक है.
SR No.002236
Book TitleYashodhar Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain
PublisherSanmati Research Institute of Indology
Publication Year1988
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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