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और संसार के सभी प्राणियों को अभयदान देने वाला है। इसलिए हे माता, बुरे स्वप्न की शान्ति के लिए सर्व प्राणी वर्ग पर दया करनी चाहिए। वह दया पुण्योत्पादक और हितकारी है। इसलिए इहलोक और परलोक सुखदायी तथा दयाप्रधान धर्म का पालन करना चाहिए । ( २१-३१ )
विवेकशील विद्वानों का यह कर्त्तव्य है कि वे विघ्नों की शांति के लिए जन्म मरणादिक सात भयों से व्याकुल जीवों को कभी भी नहीं मारें, चाहे अपने प्राणों का नाश भले ही हो जाय । इसके साथ ही समस्त अनिष्टों को नाश करने के लिए और पारलौकिक सुख पाने के लिए जिनदेव की पूजा करनी चाहिए । यह पूजा यथाशक्ति जल, चन्दन, अक्षत आदि आठ प्रकार के द्रव्यों से की जाती है । धार्मिक गृहस्थों को कात्यायिनी देवी की पूजा किसी भी कीमत पर विहित नहीं मानी जा सकती है । जो विघ्नों की शांति के लिए जीव-हिंसा की माँग करती है वह पापिनी और अत्यन्त क्रूर परिणामों से युक्त है । ऐसी हिंसक कात्यायिनी देवी कैसे सुखदायिनी हो सकती है ?
नीति के जानकारों ने दुष्टों का निग्रह करना और सज्जनों का पालन करना क्षत्रियों का धर्म कहा है । इसलिए प्रजापालक नृपगण कभी भी अन्याय मार्ग का अनुसरण नहीं करते। और यदि राजा लोग ही निर्दोष पशुओं तथा जलचर, थलचर और नभचर जीवों का वध करते हैं तब तो सारी प्रजा भी जीवों का वध आदि पापों के कार्य करने में स्वच्छन्द हो जाएगी। अखिल संसारी- जन इन दीनहीन जीवों की हिंसा करते हैं इसलिए पृथ्वीपालक राजाओं को उन्हें बचाने के ● लिए उन प्राणियों का घात कभी भी नहीं करना चाहिए। इसलिए नीति-मार्ग पथिक राजकुमारों को धर्म और सुख के लिए, संसार के सभी प्राणी वर्गों की " रक्षा करने का महान् प्रयत्न करना चाहिए। ( ३२-४०)
जो राजा दुर्बल अथवा बलवान प्राणियों का घात करता है, वह मूर्ख उस पापबंध से परलोक में भी अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त करता है। जो जीव इस लोक में बैर से जिस जीव को दुःख और प्रेमवश सुख देता है, उन्हीं जीवों से उसे परलोक में दुखं और सुख की प्राप्ति होती है । इसलिए हिंसा त्यागकर अहिंसा रूप 'व्रत को धारण करना चाहिए । इसलिए हे माता ! सुख और सुख के कारण तथा दुःख और दुःखों के कारणों के उत्पादक धर्म और पाप को जानकर और जिनेन्द्र वचन पर अटल श्रद्धा कर कभी भी हिंसात्मक बलि नहीं करूँगा । यदि हाथ में दीपक लेकर चलने पर भी कुएं गिरना हो तो भला हाथ में दीपक का बोझ ढोने से क्या लाभ ? यदि पुरुष प्राणियों की रक्षा नहीं कर सकता है तो उसे ज्ञान को आराधना से क्या लाभ? ( ४१-४५ ) इस प्रकार विनय के साथ मैंने माता को पुनः समझाया । परन्तु वह विवेकहीन माता पुत्र, पौत्र और पुत्रवधू पर अत्यधिक प्रेमरूपी गाढांधकार से अन्धी थी । इसलिए उसने कहा - नैष्कर्म सूचक
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